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________________ 56] [नन्दीसूत्र (2) कालद्वार-अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के उतरते समय 3 वर्ष साढ़े पाठ मास शेष रहने पर, सम्पूर्ण चौथे पारे तथा पाँचवें पारे में 64 वर्ष तक सिद्ध होते हैं / उत्सपिणी काल के तीसरे बारे में और चौथे बारे में कुछ काल तक सिद्ध हो सकते हैं। (3) गतिद्वार-प्रथम चार नरकों से, पृथ्वी-पानी और वादर वनस्पति से, संज्ञी तिर्यंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य, भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-चारों जाति के देवों से निकले हुए जीव मनुष्यगति प्राप्त कर सिद्ध हो सकते हैं / (4) वेदद्वार--वर्तमानकाल की अपेक्षा अपगत-वेदी (वेदरहित) ही सिद्ध होते हैं, पहले चाहे उन्होंने (स्त्री वेद, पुरुष वेद या नपुंसक वेद) तीनों वेदों का अनुभव किया हो / (5) तीर्थद्वार-तीर्थंकर के शासनकाल में ही अधिक सिद्ध होते हैं / बहुत कम जोब प्रतीर्थ में सिद्ध होते हैं। (6) लिङ्गद्वार-द्रव्य से स्वलिङ्गी, अन्यलिङ्गी और गहिलिङ्गी सिद्ध होते हैं / भाव से स्वलिङ्गी ही सिद्ध होते हैं। (7) चारित्रद्वार-~चारित्र पाँच होते हैं / इनके आधार पर कोई सामायिक, सूक्ष्मसंपराय और यथा-ख्यात चारित्र से, कोई सामायिक, छेदोपस्थानीय, सूक्ष्मसंपराय एवं यथाख्यात चारित्र से तथा कोई पाँचों से ही सिद्ध होते हैं / यथाख्यातचारित्र के अभाव में कोई प्रात्मा सिद्ध नहीं हो सकती, वह सिद्धि का साक्षात् कारण है / (8) बुद्धद्वार--प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित-इन तीनों अवस्थाओं से सिद्ध होते हैं। (8) ज्ञानद्वार--साक्षात् रूप से केवलज्ञान से ही सिद्ध होते हैं, किन्तु पूर्वावस्था की अपेक्षा से मति, श्रुत और केवलज्ञान से, कोई मति, श्रुत, अवधि और केवलज्ञान से कोई मति, श्रुत, मनःपर्यव और केवलज्ञान से तथा कोई मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान से सिद्ध होते हैं। (10) अवगाहनाद्वार-जघन्य दो हाथ, मध्यम सात हाथ और उत्कृष्ट 500 धनुष की अवगाहना वाले सिद्ध होते हैं। (11) उत्कृष्टद्वार-कोई सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद प्रतिपाती होकर देशोन अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल व्यतीत होने पर सिद्ध होते हैं / कोई अनन्तकाल के बाद सिद्ध होते हैं तथा कोई असंख्यात और कोई संख्यातकाल के पश्चात् सिद्ध होते हैं / (12) अन्तरद्वार-सिद्ध होने का अन्तरकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है। छह मास के पश्चात् कोई न कोई जीव सिद्ध होता ही है। (13) अनुसमयद्वार-जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट पाठ समय तक लगातार सिद्ध होते रहते हैं। पाठ समय के पश्चात् अन्तर पड़ जाता है / (14) संख्याद्वार-जघन्य एक समय में एक और उत्कृष्ट एक सौ पाठ सिद्ध होते हैं / इससे अधिक सिद्ध एक समय में नहीं होते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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