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________________ ज्ञान के पांच प्रकार अर्थात् जिन अात्माओं ने पाठों कर्मों को नष्ट कर दिया है और उनसे मुक्त हो गए हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं / यद्यपि सिद्ध अनेक प्रकार के हो सकते हैं, यथा-कर्मसिद्ध, शिल्पसिद्ध, विद्यासिद्ध, द्ध, प्रागमसिद्ध, अर्थसिद्ध, यात्रासिद्ध, तप:सिद्ध, कर्मक्षयसिद्ध आदि, किन्तु यहाँ कर्मक्षयसिद्ध का ही अधिकार है। कर्मक्षयजन्य गुण कभी लुप्त नहीं होते / वे आत्मा की तरह अविनाशी, सहभावी अरूपी और अमूर्त होते हैं / अत: सिद्धों में इनका होना और सदैव रहना अनिवार्य है। सिद्ध केवलज्ञान ४०–से कि तं सिद्ध केवलनाणं ? सिद्धकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा-प्रणतरसिद्ध-केवलनाणं च, परंपरसिद्ध केवलनाणं च / ४०-प्रश्न–सिद्ध केवलज्ञान कितने प्रकार का है ? उत्तर-वह दो प्रकार का है, यथा-(१) अनंतरसिद्ध केवलज्ञान और (2) परंपरसिद्ध केवलज्ञान / विवेचन--जैन दर्शन के अनुसार तैजस और कार्मण शरीर से आत्मा का सर्वथा मुक्त या पृथक् हो जाना ही मोक्ष है / प्रस्तुत सूत्र में सिद्धकेवलज्ञान के दो भेद किये गये हैं (1) अनंतरसिद्ध केवलज्ञान-जिन्हें सिद्ध हुए एक समय ही हुआ हो उन्हें अनंतर सिद्ध कहते हैं / उनका ज्ञान अनन्तरसिद्ध-केवलज्ञान है / (2) परम्परसिद्ध-केवलज्ञान-जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो गये हों उन परम्परसिद्ध केवलज्ञानियों का केवल ज्ञान / वृत्तिकार ने निम्न आठ द्वारों के आधार पर सिद्ध स्वरूप का वर्णन किया है / वे हैं (1) सत्पदप्ररूपणा (2) द्रव्यप्रमाणद्वार (3) क्षेत्रद्वार (4) स्पर्शनाद्वार (5) कालद्वार (6) अन्तरद्वार (7) भावद्वार (8) अल्पबहुत्वद्वार / इन आठों द्वारों पर भी पन्द्रह-पन्द्रह उपद्वार घटाए गये हैं ! ये क्रमशः इस प्रकार हैं (1) क्षेत्र (2) काल (3) गति (4) वेद (5) तीर्थ (6) लिङ्ग (7) चारित्र (8) बुद्ध (9) ज्ञान (10) अवगाहना (11) उत्कृष्ट (12) अन्तर (13) अनुसमय (14) संख्या (15) अल्पबहुत्व / (1) सत्पदप्ररूपणा (1) क्षेत्रद्वार-अढ़ाईद्वीप के अन्तर्गत पन्द्रह कर्मभूमि से सिद्ध होते हैं / संहरण की अपेक्षा दो समुद्र, अकर्मभूमि, अन्तरद्वीप, ऊर्ध्व दिशा में पण्डुकवन तथा अधोदिशा में अधोगामिनी विजय से भी सिद्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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