________________ (नन्दीसूत्र प्रकाश ही प्रकाश होता है अंधकार का लेश भी नहीं होता, इसी प्रकार केवलज्ञान पूर्ण प्रकाश-पुज होता है / उत्पन्न होने के बाद फिर कभी वह नष्ट नहीं होता / यह ज्ञान सादि अनंत है तथा सदा एक सरीखा रहने वाला है / केवलज्ञान मनुष्य भव में ही उत्पन्न होता है, अन्य किसी भव में नहीं। उसकी अवस्थिति सदेह और विदेह दोनों अवस्थाओं में पाई जाती है। इसीलिए सूत्रकार ने भवस्थ एवं सिद्ध केवलज्ञान दो प्रकार का बताया है। मनुष्य शरीर में अवस्थित तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती प्रभु के केवलज्ञान को भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं तथा देहरहित मुक्तात्मा को सिद्ध कहते हैं / उनके ज्ञान को सिद्धकेवलकहा है / इस विषय में वृत्तिकार ने कहा है "तत्रेह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्योऽन्यत्र केवलोत्पादाभावात्, भवे तिष्ठन्ति इति भवस्थाः / " भवस्थ केवलज्ञान भी दो प्रकार का बताया गया है / सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अयोगिभवस्थ केवलज्ञान / वीर्यात्मा अर्थात् आत्मिक शक्ति से प्रात्मप्रदेशों में स्पन्दन होने से मन, वचन और काय में जो व्यापार होता है उसी को योग कहते हैं। वह योग पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। चौदहवें गुणस्थान में योगनिरुन्धन होने पर जीव अयोगी कहलाता है। आध्यात्मिक उत्कर्ष के चौदह स्थान या श्रेणियाँ हैं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं / बारहवें गुणस्थान में वीतरागता उत्पन्न हो जाती है किन्तु केवलज्ञान नहीं हो पाता / केवलज्ञान तो तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय में ही उत्पन्न होता है। इसलिये उसे प्रथम समय का सयोगिभवस्थ केवलज्ञान कहते हैं। किन्तु जिसे तेरहवें गुणस्थान में रहते हुए एक से अधिक समय हो जाते हैं, उसे अप्रथमसमय का सयोगिभवस्थ केवलज्ञान होता है / अथवा जो तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर पहुँच गया है, उसे चरम समय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान तथा जो तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में नहीं पहुंचा उसके ज्ञान को अचरम समय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान कहा जाता है। अयोगिभवस्थ केवलज्ञान के भी दो भेद हैं:--जिस केवलज्ञान-प्राप्त प्रात्मा को चौदहवें गणस्थान में प्रवेश किये हए पहला समय ही हआ है, उसके ज्ञान को प्रथम समय अयोगिभवस्थ-केवल ज्ञान कहते हैं / और जिसे प्रवेश किये अनेक समय हो गये हैं, उसके ज्ञान को अप्रथम समय अयोगिभवस्थ-केवलज्ञान कहते हैं / अथवा जिसे सिद्ध होने में एक समय ही शेष रहा है उसके ज्ञान को चरमसमय-अयोगिभवस्थ केवलज्ञान तथा जिसे सिद्ध होने में एक से अधिक समय शेष है, ऐसे चौदहवें गुणस्थान के स्वामी के केवलज्ञान को अचरम-समय-अयोगिभवस्थ-केवलज्ञान कहते हैं। चौदहवें गुणस्थान को स्थिति, अ, इ, उ, ऋ, और ल इन पाँच अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, मात्र इतनी ही है। इसे लेशी अवस्था भी कहते हैं। सिद्ध वे कहलाते हैं जो आठ कर्मों से सर्वथा विमुक्त हो गए हैं। वे संख्या में अनन्त हैं किन्तु स्वरूप सबका सदृश है। उनका केवलज्ञान, सिद्ध केवलज्ञान कहलाता हैं। सिद्ध शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है "षिघु संराद्धौ, सिध्यति स्म इति सिद्धः, यो येन गुणेन परिनिष्ठितो, न पुनः साधनीयः स सिद्ध उच्यते, यथा सिद्ध ओदनः स च कर्मासिद्धदिभेदादनेकविधः, अथवा सितं-बद्धं ध्मातं भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धः,..... सकलकर्मविनिर्मुक्तो मुक्तावस्थामुपगत इत्यर्थः / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org