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________________ [नन्दीसूत्र (3) अवधिज्ञान के स्वामी चारों गतियों में पाए जाते हैं, किन्तु मन:पर्याय के अधिकारी लब्धिसंपन्न संयत ही हो सकते हैं। (4) अवधिज्ञान का विषय कुछ पर्याय सहित रूपी द्रव्य है, जबकि मनःपर्यवज्ञान का विषय उसकी अपेक्षा अनन्तवा भाग है। (5) अवधिज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विभङ्गज्ञान के रूप में परिणत हो सकता है, जबकि मनःपर्यवज्ञान के होते हुए मिथ्यात्व का उदय होता ही नहीं। अर्थात् इस ज्ञान का विपक्षी कोई अज्ञान नहीं है। (6) अवधिज्ञान आगामी भव में भी साथ जा सकता है जबकि मनःपर्यवज्ञान इस भव तक ही रहता है, जैसे संयम और तप / मनःपर्यवज्ञान का उपसंहार ३८-मणपज्जवनाणं पुण, जणमण-परिचितियत्थपागडणं / माणुसखित्तनिबद्ध, गुणपच्चइअं चरित्तवप्रो / / से तं मणपज्जवनाणं। ३८-मन पर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन द्वारा परिचिन्तित अर्थ को प्रगट करनेवाला है / क्षान्ति, संयम आदि गुण इस ज्ञान की उत्पत्ति के कारण हैं और यह चारित्रसम्पन्न अप्रमत्तसंयत को ही होता है। विवेचन-उक्त गाथा में 'जन' शब्द का प्रयोग हुआ है / इसकी व्युत्पत्ति है--"जायते इति जन:' / इसके अनुसार जन का अर्थ केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु समनस्क भी है। मनुष्यलोक दो समुद्र और अढाई द्वीप तक ही सीमित है / उस मर्यादित क्षेत्र में जो मनुष्य, तिर्यंच, संज्ञी पंचेन्द्रिय तथा देव रहते हैं उनके मन के पर्यायों को मनःपर्यवज्ञानी, जान सकते हैं। यहाँ 'गुणपच्चइयं' तथा 'चरित्तवनो' ये दो पद महत्त्वपूर्ण हैं। अवधिज्ञान जैसे भवप्रत्यायिक और गुणप्रत्यर्थिक, इस तरह दो प्रकार का है, वैसे मनःपर्याय नहीं। वह केवल गुणप्रत्यायिक ही है / अवधिज्ञान तो अविरत, श्रावक और प्रमत्तसंयत को भी हो जाता है किन्तु मन:पर्याय ज्ञान केवल चारित्रवान् साधक को ही होता। केवलज्ञान ३६-से कि तं केवलनाणं? केवलनाणं दुविहं पण्णतं, तं जहा-भवत्थकेवल नाणं च सिद्धकेवलनाणं च। से कि तं भवत्यकेवलनाणं? मवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-सजोगि-भवत्यकेवलनाणं च प्रजोगिभवत्थ-केवलनाणं च / से कि तं सजोगिभवत्थ-केवलणाणं? सजोगिभवत्यकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं तंजहा-- पढमसमय-सजोगिभवत्थ-केवलणाणं च, अपढमसमय-सजोगिभवत्थ-केवलणाणं च / अहवा चरमसमय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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