________________ ज्ञान के पांच प्रकार [51 (4) भावतः—मनःपर्यवज्ञान का जितना क्षेत्र बताया जा चुका है, उसके अन्तर्गत जो समनस्क जीव हैं वे संख्यात ही हो सकते हैं, असंख्यात नहीं / जबकि समनस्क जीव चारों गतियों में असंख्यात हैं, उन सबके मन की पर्यायों को नहीं जानता। मन का प्रत्यक्ष अवधिज्ञानी भी कर सकता है किन्तु मन को पर्यायों को मनःपर्यायज्ञानी सूक्ष्मतापूर्वक, अधिक विशुद्ध रूप से प्रत्यक्ष जानता व देखता है। यहाँ एक शंका होती है कि अवधिज्ञान का विषय रूपी है और मन:पर्याय ज्ञान का विषय भी तो रूपी है फिर अवधिज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी की तरह मन को तथा मन की पर्यायों को क्यों नहीं जानता? शंका का समाधान यह है कि अवधिज्ञानी मन को व उसकी पर्यायों को भी प्रत्यक्ष कर सकता है किन्तु उसमें झलकते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को प्रत्यक्ष नही कर सकता / जैसे टेलीग्राम की टिक-टिक कोई भी कानों से सुन सकता है किन्तु उसके पीछे क्या प्राशय है, इसे टेलीग्राम पर काम करने वाले व्यक्ति ही जान पाते हैं। एक दूसरी शंका और भी उत्पन्न होती है कि ज्ञान अरूपी और अमूर्त है जबकि मनःपर्यवज्ञान का विषय रूपी है, ऐसी स्थिति में वह मनोगत भावों को कैसे जान सकता है और कैसे प्रत्यक्ष कर सकता है ? इसका समाधान यह है कि क्षायोपशमिक भाव में जो ज्ञान होता है वह एकान्त रूप से अरूपी नहीं होता कथंचित् रूपी भी होता है / निश्चय रूप से अरूपी ज्ञान क्षायिक भाव में ही होता है। जैसे प्रौदयिक भाव में जीव कथंचित् रूपी होता है, वैसे ही क्षायोपशमिक ज्ञान भो कथंचित् रूपी होता है, सर्वथा अरूपी नहीं। एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। जैसे-विद्वान् व्यक्ति भाषा को सुनकर कहने वाले के भावों को भी समझ लेता है उसी प्रकार विभिन्न निमित्तों से भाव समझे जा सकते हैं, क्योंकि क्षायोपशमिक भाव सर्वथा अरूपी नहीं होता। ऋजुमति और विपुलमति में अन्तर ऋजुमति और विपुलमति में अंतर एक उदाहरण से समझना चाहिए। जैसे दो छात्रों ने एक ही विषय की परीक्षा दी हो और उत्तीर्ण भी हो गये हों। किन्तु एक ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर प्रथम श्रेणी प्राप्त की और दूसरे ने द्वितीय श्रेणी / स्पष्ट है कि प्रथम श्रेणी प्राप्त करने वाले का ज्ञान कुछ अधिक रहा और दूसरे का उससे कुछ कम / ठीक इसी तरह ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञान अधिकतर, विपुलतर एवं विशुद्धतर होता है। ऋजुमति तो प्रतिपाति भी हो सकता है अर्थात् उत्पन्न होकर नष्ट हो सकता है, किन्तु विपुलमति नहीं गिरता / विपुल भति मन:पर्यवज्ञानी उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त करता है। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में अन्तर (1) अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यवज्ञान अधिक विशुद्ध होता है / (2) अवधिज्ञान का विषयक्षेत्र सभी रूपी पदार्थ हैं, जबकि मनःपर्यवज्ञान का विषय केवल पर्याप्त संज्ञी जीवों के मानसिक पर्याय ही हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org