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________________ 50] [नन्दीसूत्र विवेचन-मनःपर्यवज्ञान के दो भेद-(१) ऋजुमति–जो अपने विषय का सामान्य रूप से प्रत्यक्ष करता है। (2) विपुलमति-वह कहलाता है जो अपने विषय को विशेष रूप से प्रत्यक्ष करता है। अब मनःपर्यवज्ञान के विषय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है। (1) द्रव्यतः-मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के मनरूप में परिणत अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की पर्यायों को स्पष्ट रूप से देखता व जानता है। जैनागम में कहीं भी मनःपर्याय दर्शन का विधान नहीं है, फिर भो मूल पाठ में 'जाणइ' के साथ 'पासइ' अर्थात् देखता है, ऐसा कहा जाता है। इसका तात्पर्य क्या है ? इस संबंध में अनेक प्राचार्यों ने अनेक अभिमत ध्यक्त किए हैं। किन्हीं का कथन है कि मनःपर्यायज्ञानी अवधिदर्शन से देखता है, किन्तु यह समाधान संगत नहीं है, क्योंकि किसी-किसी मनःपर्यायज्ञानी को अवधिदर्शनअवधिज्ञान होते ही नहीं हैं। किसी का मन्तव्य है कि मन:पर्यवज्ञान ईहाज्ञानपूर्वक होता है / कोई उसे अचक्षुदर्शनपूर्वक मानते हैं तो कोई प्रज्ञापना सूत्र में प्रतिपादित पश्यत्तापूर्वक स्वीकार करते हैं / विशेषावश्यक भाष्य में इस विषय की विस्तारपूर्वक मीमांसा की गई है। जिज्ञासु जन उसका अवलोकन करें। प्रस्तुत में टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि मनःपर्यायज्ञान मनरूप परिणत पुद्गलस्कन्धों को प्रत्यक्ष जानता है और मन द्वारा चिन्तित बाह्य पदार्थों को अनुमान से जानता है / भाष्यकार और चूणिकार का भी यही अभिमत है। इसी अपेक्षा से 'पासइ' शब्द का प्रयोग किया गया है। दूसरा समाधान टीकाकार ने यह किया है कि ज्ञान एक होने पर भी क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उसका उपयोग अनेकविध हो सकता है। अतएव विशिष्टतर मनोद्रव्यों के पर्यायों को जानने की अपेक्षा 'जाणइ' कहा है, और सामान्य मनोद्रव्यों को जानने की अपेक्षा पामई शब्द का प्रयोग किया गया है। (2) क्षेत्रत:-लोक के मध्यभाग में अवस्थित आठ रुचक प्रदेशों से छह दिशाएँ और चार विदिशाएं प्रवृत्त होती हैं। मानुषोत्तर पर्वत, जो कुण्डलाकार हैं उसके अन्तर्गत अढाई द्वीप और दो समुद्र हैं। उसे समयक्षेत्र भी कहते हैं। इसकी लम्बाई-चौड़ाई 45 लाख योजन की है / मनःपर्यवज्ञानी समयक्षेत्र में रहने वाले समनस्क जीवों के मन की पर्यायों को जानता व देखता है तथा विमला दिशा में सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्रादि में रहने वाले देवों के तथा भद्रशाल वन में रहने वाले संज्ञी जीवों के मन को पर्यायों को भी प्रत्यक्ष करता है। वह नीचे पुष्कलावती विजय के अन्तर्गत ग्राम नगरों में रहने वाले संज्ञी मनुष्यों और तिर्यंचों के मनोगत भावों को भी भलीभांति जानता है / मन की पर्याय ही मनःपर्याय ज्ञान का विषय है। (3) कालत:-- मनःपर्यवज्ञानी केवल वर्तमान को ही नहीं अपितु अतीतकाल में पल्योपम के असंख्यातवें काल पर्यंत तथा इतना ही भविष्यत्काल को अर्थात् मन की जिन पर्यायों को हुए पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग हो गया है और जो मन की भविष्यकाल में पर्यायें होंगी, जिनकी अवधि पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है, उतने भूत और भविष्य-काल को वर्तमान काल की तरह भलीभांति जानता व देखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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