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________________ निन्दीसूत्र जाता है / प्रथम आहार पर्याप्ति को छोड़कर शेष पर्याप्तियों की समाप्ति अन्तर्मुहूर्त में होती है / जो पर्याप्त होते हैं वे ही मनुष्य मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। ३३-जइ पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवतियमणुस्साणं, कि सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गम्भवक्कंतियमणुस्साणं, मिच्छदिटिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गन्भवतिय-मणुस्साणं, सम्मामिच्छदिट्टि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं? गोयमा ! सम्महिट्टि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवतिय-मणुस्साणं, णो मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गन्भवतियमणुस्साणं, णो सम्मामिच्छद्दिटिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गम्भवक्कंतियमणुस्साणं / ३३–यदि मनःपर्यवज्ञान पर्याप्त, संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमिज, गर्भज, मनुष्यों को होता है तो क्या वह सम्यक्दृष्टि, पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्यों को होता है, मिथ्यादृष्टि पर्याप्त, संख्यात वर्ष की आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है अथवा मिश्रदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है ? उत्तर-सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है। मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को नहीं होता। विवेचन-सम्यक्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि के लक्षण इस प्रकार हैं (1) सम्यक्दृष्टि- सम्यक्दृष्टि उसे कहते हैं जो आत्मा के, सत्य के तथा जिनप्ररूपित तत्त्व के सम्मुख हो / संक्षेप में, जिसको तत्त्वों पर सम्यक् श्रद्धा हो / (2) मिथ्यादृष्टि--मिथ्यादृष्टि वह कहलाता है जिसकी जिन-प्ररूपित तत्त्वों पर श्रद्धा न हो और जो आत्मबोध एवं सत्य से विमुख हो। (3) मिश्रदृष्टि-मिश्रदर्शनमोहनीय कर्म के उदय से जिसकी दृष्टि किसी पदार्थ का यथार्थ निर्णय अथवा निषेध करने में सक्षम न हो, जो सत्य को न ग्रहण कर सकता हो, न त्याग कर सकता हो, और जो मोक्ष के उपाय एवं बंध के हेतुओं को समान मानता हो तथा जीवादि पदार्थों पर न श्रद्धा रखता हो और न ही अश्रद्धा करता हो, ऐसी मिश्रित श्रद्धा वाला जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है / यथा--कोई व्यक्ति रंग की एकरूपता देखकर सोने व पीतल में भेद न कर पाता हो। ३४--जइ सम्मद्दिटि-पज्जतग--संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवतियमणुस्साण, कि संजय-सम्म-दिट्टि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग- गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, असंजय-सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तग-संखेज्जावासाउय-कम्मभूमग-गम्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, संजया-संजय-सम्मद्दिटि-पज्जत्तगसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय- मणुस्साणं ? गोयमा ! संजय-सम्मद्दिष्टि-पज्जत्तग-संखेज्ज-वासाउय-कम्मभूमग-गम्भवतियमणुस्साणं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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