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________________ ज्ञान के पांच प्रकार अपज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गम्भवक्कंतिय-मणुस्साणं ? गोयमा ! पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गम्भवक्कंतियमणुस्साणं, णो अपज्जत्तगसंखेज्ज-वासाउयकम्मभूमग-गब्भवतियमणस्साणं / ३२-यदि संख्यातवर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है तो क्या पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को या असंख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है ? उत्तर-गौतम ! पर्याप्त संख्यात वर्ष की वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है, अपर्याप्त को नहीं। विवेचन–पर्याप्त एवं अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज, गर्भज मनुष्य दो प्रकार के होते हैं, (1) पर्याप्त (2) अपर्याप्त / पर्याप्त---कर्मप्रकृति के उदय से मनुष्य स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करे वह पर्याप्त कहलाता है। अपर्याप्त-कर्म के उदय से स्वयोग्य पर्याप्तियों को जो पूर्ण न कर सके उसे अपर्याप्त कहते हैं। जीव की शक्ति-विशेष की पूर्णता पर्याप्ति कहलाती है। पर्याप्तियाँ छः हैं / वे इस प्रकार हैं (1) आहार-पर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव आहार के योग्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें वर्ण, रस अादि रूप में बदलता है उसकी पूर्णता को आहारपर्याप्ति कहते हैं / (2) शरीरपर्याप्ति-जिस शक्ति द्वारा रस, रूप में परिणत अाहार को अस्थि, मांस, मज्जा, एवं शुक्र-शोणित आदि में परिणत किया जाता है उसकी पूर्णता को शरीरपर्याप्ति कहते हैं / (3) इन्द्रियपर्याप्ति-इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके अनाभोगनिर्वतित योगशक्ति द्वारा उन्हें इन्द्रिय रूप में परिणत करने की शक्ति की पूर्णता को इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं / (4) श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति-उच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को जिस शक्ति के द्वारा ग्रहण करके छोड़ा जाता है, उसकी पूर्ति को श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं। (5) भाषापर्याप्ति-जिस शक्ति के द्वारा प्रात्मा भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा के रूप में परिणत करता और छोड़ता है उसको पूर्णता को भाषापर्याप्ति कहते हैं / (6) मनःपर्याप्ति-जिस शक्ति के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें मन के रूप में परिणत करता है उसकी पूर्णता को मनःपर्याप्ति कहते हैं। मनःपुद्गलों के अवलम्बन से ही जीव मनन-संकल्प-विकल्प करता है। प्रहारपर्याप्ति एक ही समय में पूर्ण हो जाती है / एकेन्द्रिय में प्रथम की चार पर्याप्तियाँ होती हैं। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में पाँच पर्याप्तियाँ पाई जाती हैं, मन नहीं / संज्ञी मनुष्य में छ: पर्याप्तियाँ होती हैं। ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ पाई जाती हैं, वे सब हों तो उसे पर्याप्त कहते हैं / जब तक उनमें से न्यून हों तब तक वह अपर्याप्त कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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