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________________ ज्ञान के पांच प्रकार [43 में होता है, किन्तु वह अवधिज्ञान अप्रतिपाति होता है। इस प्रकार अवधिज्ञान का निरूपण सम्पन्न हुआ। मनःपर्यव ज्ञान २८-से कि तं मणपज्जवनाणं ? मणपज्जवणाणे णं भंते ! कि मणुस्साणं उपपज्जइ प्रमणुस्साणं? गोयमा ! मणुस्साणं, णो प्रमणुस्साणं / २८-प्रश्न-भंते ! मनःपर्यवज्ञान का स्वरूप क्या है ? यह ज्ञान मनुष्यों को उत्पन्न होता है या अमनुष्यों को ? (देव नारक और तिर्यंचों का ?) / भगवान् ने उत्तर दिया--हे गौतम ! मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है, अमनुष्यों को नहीं। विवेचन-सत्रकार अवधिज्ञान के पश्चात अब मनःपर्यवज्ञान का अधिकारी कौन हो सकता है, इसका विवेचन प्रश्न और उत्तर के रूप में करते हैं / प्रश्न किया जा सकता है कि जिन नहीं किंतु जिन-सदश गणधरों में प्रमुख गौतम स्वामी को यह शंका कैसे हो सकती है कि मनःपर्यवज्ञान किसको होता है ? उत्तर यह है कि प्रश्न कई कारणों से किये जाते हैं। यथा-जिज्ञासा का समाधान करने के लिए, विवाद करने के लिए, किसी ज्ञानी की परीक्षा करने के लिए अथवा अपनी विद्वत्ता सिद्ध करने के लिए भी। किन्तु गौतम स्वामी के लिए इनमें से कोई भी कारण संभाव्य नहीं हो सकता था। वे चार ज्ञान के धारक, पूर्ण निरभिमान एवं विनीत थे। अतः उनके प्रश्न पूछने के निम्न कारण हो सकते हैं। जैसे-अपने अवगत विषय को स्पष्ट करने के लिये, अन्य लोगों को शंका के निवारण हेतु, उपस्थित अनेक शिष्यों के संशय के निवारणार्थ, लोगों को ज्ञान हो तथा उनकी अभिरुचि संयम-साधना एवं तप में बढ़े / यह दृष्टिकोण ही गौतम स्वामी के प्रश्न पूछने में संभव है। इससे यह भी परिलक्षित होता है कि आत्मज्ञानी गुरु के सान्निध्य का लाभ लेते हुए निकटस्थ शिष्य को अति विनम्रता से ज्ञानार्जन करते रहना चाहिए। २६–जइ मणुस्साणं, कि सम्मुच्छिम-मणुस्साणं गम्भवक्कंतिय-मणुस्साणं ? गोयमा! नो समुच्छिम-मणुस्साणं, गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं उपपज्जइ / २६-यदि मनुष्यों को उत्पन्न होता है तो क्या संमूछिम मनुष्यों को या गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) मनुष्यों को उत्पन्न होता है ? उत्तर-गौतम ! संमूर्छिम मनुष्यों को नहीं, गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है / विवेचन—भगवान् ने गौतम स्वामी को बताया कि मनःपर्यवज्ञान गर्भज मनुष्यों को ही होता है / गर्भज वे होते हैं जो माता पिता के संयोग से उत्पन्न हों। संमूछिम मनुष्य को यह ज्ञान नहीं होता / संमूछिम वे कहलाते हैं जो निम्नलिखित चौदह स्थानों में उत्पन्न हों, यथा-गर्भज मनुष्यों के मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक का मैल, वमन, पित्त, रक्त-राध, वीर्य, शोणित में तथा आर्द्र हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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