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________________ 42] [मन्दीसूत्र ज्ञानी पुद्गल की अनन्त पर्यायों को जानता व देखता है, किन्तु सर्वपर्यायों को नहीं। वह सर्व द्रव्यों को जानता व देखता है पर सर्वपर्याय उसका विषय नहीं है। अवधिज्ञानविषयक उपसंहार २६-प्रोहीभवपच्चतिमो, गुणपच्चतिम्रो य वण्णिो एसो। तस्स य बहू वियप्पा, दव्वे खेत्ते य काले य॥ से तं ओहिणाणं / २६--यह अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक दो प्रकार से कहा गया है। और उसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप से बहुत-से विकल्प (भेद-प्रभेद) होते हैं। विवेचन-पूर्वोक्त गाथाओं में अवधिज्ञान के भेदों के विषय में तथा उनमें से भी प्रत्येक के विकल्पों का निर्देश किया गया है। गाथा में आए हुए 'य' शब्द से भाव अर्थात् पर्याय ग्रहण करना चाहिये / अबाह्य-बाह्य अवधिज्ञान २७-नेरइय-देव-तित्थंकरा य, प्रोहिस्सऽबाहिरा हुँति / __पासंति सम्वनो खलु सेसा देसेण पासंति / / से तं प्रोहिणाणपच्चक्खं / . २७-नारक, देव एवं तीर्थंकर अवधिज्ञान से युक्त (अबाह्य) ही होते हैं और वे सब दिशानों तथा विदिशाओं में देखते हैं। शेष अर्थात् इनके सिवाय मनुष्य एवं तिथंच ही देश से देखते हैं / इस प्रकार प्रत्यक्ष अवधिज्ञान का वर्णन सम्पूर्ण हुआ / विवेचन-गाथा में बताया गया है कि नैरयिक, देव और तीर्थकर, इनको निश्चय ही अवधिज्ञान होता है / दूसरी विशेषता इनमें यह है कि इन तीनों को जो अवधिज्ञान होता है, वह सर्व दिशाओं और विदिशाओं विषयक होता है / शेष मनुष्य व तिर्यच ही देश से प्रत्यक्ष करते हैं। तात्पर्य यह है कि नारक, देव और तीर्थंकर अवधिज्ञान से बाहर नहीं होते, इसके दो अर्थ होते हैं / प्रथम यह कि इन्हें अवश्य ही जन्मसिद्ध अवधिज्ञान होता है / दूसरा अर्थ यह कि ये अपने अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के भीतर ही रहते हैं, क्योंकि इनका अवधिज्ञान सभी दिशा-विदिशाओं को प्रकाशित करता है / शेष मनुष्यों और तिर्यचों के लिए यह नियम नहीं है। शेष मनुष्य और तिथंच अवधिज्ञान से कोई अबाह्य होते हैं और कोई बाह्य भी होते हैं, अर्थात् उन्हें दोनों प्रकार का ज्ञान हो सकता है। देव और नारको आजीवन अवधिज्ञान से अबाह्य रहते हैं, किन्तु तीर्थकर छद्मस्थकाल तक ही अवधिज्ञान से अबाह्य होते हैं। तीर्थकर बनने वाली प्रात्मा यदि देवलोक से या लोकान्तिक देवलोकों में से च्यवकर पाई है तो वह विपुल अवधिज्ञान लेकर आती है और यदि वह पहले, दूसरे एवं तीसरे नरक से आती है तो अवधिज्ञान उतना ही रहता है जितना तत्रस्थ नारकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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