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________________ ज्ञान के पाँच प्रकार] [41 २४-प्रश्न-अप्रतिपाति अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? उत्तर-जिस ज्ञान से ज्ञाता अलोक के एक भी आकाश-प्रदेश को जानता है-देखता है, वह अप्रतिपाति अर्थात् न गिरनेवाला अवधिज्ञान कहलाता है / यह अप्रतिपाति अवधिज्ञान का स्वरूप है। विवेचन-जैसे कोई महापराक्रमी पुरुष अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके निष्कंटक राज्य करता है, ठीक इसी प्रकार अप्रतिपाति अवधिज्ञानी केवलज्ञानरूप राज्य-श्री को अवश्य प्राप्त करके त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ बन जाता है। यह ज्ञान बारहवें गुणस्थान के अन्त तक स्थायी रहता है, क्योंकि तेरहवें गणस्थान के प्रथम समय में केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार अवधिज्ञान के छह भेदों का वर्णन समाप्त हुआ। द्रव्यादि क्रम से अवधिज्ञान का निरूपण २५-तं समासपो चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वरो खेत्तनो कालो भावनो। तत्थ दव्य प्रोणं अोहिणाणो जहणणं अणंताणि रूविदव्वाइं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं सवाई रूविदव्वाइं जाणइ पास। खेत्तनो णं प्रोहिणाणी जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जाइं अलोए लोयमेत्ताई खंडाई जाणइ पास। कालओ गं प्रोहिणाणी जहणेणं प्रावलियाए असंखेज्जतिभागं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं प्रसंखेज्जायो उस्सपिणीसो अवसप्पिणीनो अतीतं च अणागत च कालं जाणइ पासइ / भावनो णं प्रोहिणाणी जहणणं अणते भावे जाणइ पासइ, उक्कोसेण वि अणते भावे जाणइ पासई, सध्वभावाणमगंतभागं जाणइ पासइ / २५–अवधिज्ञान संक्षिप्त में चार प्रकार से प्रतिपादित किया गया है / यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / . (1) द्रव्य से-अवधिज्ञानी जघन्यत:-कम से कम अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है / उत्कृष्ट रूप से समस्त रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है / (2) क्षेत्र से--अवधिज्ञानी जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र क्षेत्र को जानता-देखता है / उत्कृष्ट अलोक में लोकपरिमित असंख्यात खण्डों को जानता-देखता है। (3) काल से-अवधिज्ञानी जघन्य-एक पावलिका के असंख्यातवें भाग काल को जानतादेखता है / उत्कृष्ट–अतीत और अनागत-असंख्यात उत्सपिणी और अवसर्पिणी परिमाण काल को जानता व देखता है। (4) भाव से-अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त भावों को जानता-देखता है और उत्कृष्ट भी अनन्त भावों को जानता-देखता है / किन्तु सर्व भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है। विवेचन-भाव से जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अनन्त भावों-पर्यायों को जानना कहा गया है किन्तु उत्कृष्ट पद में जघन्य की अपेक्षा अनन्तगुणी पर्यायों का जानना समझना चाहिए / अवधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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