________________ [नन्दीसूत्र प्राप्त अवधिज्ञान ह्रास को प्राप्त होने लगता है। सारांश यह है कि अप्रशस्त योग एवं संक्लेश, ये दोनों ही ज्ञान के विरोधी अथवा बाधक हैं। प्रतिपाति अवधिज्ञान २३-से कि तं पडिवाति प्रोहिणाणं ? पडिवाति प्रोहिणाणं जण्णं जहण्णेणं अंगलस्स असंखेज्जतिभागं वा संखेज्जतिभागं वा, वालग्गं वा वालग्गपुहत्तं बा, लिक्खं वा लिक्खपुहत्तं वा, जयं वा जयपुहत्तं वा, जवं वा जवपुत्तं वा, अंगुलं वा अंगुलपुहुत्तं वा, पायं वा पायपुहुत्तं वा, वित्थि वा वियस्थिJहुत्तं वा, रणि वा रणिपुहत्तं वा, कुच्छि वा कुच्छियहत्तं वा, धणुयं वा धणुयपुहत्तं वा, गाउयं वा गाउयपुहत्तं वा, जोयणं वा जोयणपुहत्तं वा, जोयणसयं वा जोयणसयपुहत्तं वा, जोयणसहस्सं वा जोयणसहस्सपुहुत्तं वा, जोयणसतसहस्सं वा जोयणसतसहस्सपुहत्तं वा, जोयणकोडि वा जोयणको डिपुहत्तं वा, जोयणकोडाकोडि वा जोयणकोडाकोडिपृहुत्तं वा उक्कोसेण लोगं वा पासित्ता णं पडिवएज्जा / से तं पडिवातिप्रोहिणाणं / २३–प्रश्न-प्रतिपाति अवधिज्ञान का क्या स्वरूप है ? उत्तर-प्रतिपाति अवधिज्ञान, जघन्य रूप से अंगुल के असंख्यातवें भाग को अथवा संख्यातवें भाग को, इसी प्रकार बालाग्न या बालासपृथक्त्व, लीख या लीख पृथक्त्व, यूका-जू या यूकापृथक्त्व, यव--जौ या यवपृथक्त्व, अंगुल या अंगुलपृथक्त्व, पाद या पादपृथक्त्व, अथवा वितस्ति (विलात) या वितस्तिपृथक्त्व, रत्नि-हाथ परिमाण या रत्निपृथक्त्व, कुक्षि-दो हस्तपरिमाण या कुक्षिपृथक्त्व, धनुष-चार हाथ परिमाण या धनुषपृथक्त्व, कोस-क्रोश या कोसपृथक्त्व, योजन या योजनपृथक्त्व, योजनशत (सौ योजन) या योजनशत पृथक्त्व, योजन-सहस्र-एक हजार योजन या सहस्रपृथक्त्व, लाख योजन अथवा लाखयोजनपृथक्त्व,योजनकोटि--एक करोड़ योजन या योजन कोटिपृथक्त्व, योजन कोटिकोटि या योजन कोटाकोटिपृथक्त्व, संख्यात योजन या संख्यातपृथक्त्व योजन, असंख्यात या असंख्यातपृथक्त्व योजन अथवा उत्कृष्ट रूप से सम्पूर्ण लोक को देखकर जो ज्ञान नष्ट हो जाता है उसे प्रातिपाति अवधिज्ञान कहा गया है। विवेचन-प्रतिपाति का अर्थ है गिरने बाला अथवा पतित होने वाला / पतन तीन प्रकार से होता है / (1) सम्यक्त्व से (2) चारित्र से (3) उत्पन्न हुए विशिष्ट ज्ञान से / प्रातिपाति अवधिज्ञान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट सम्पूर्ण लोक तक को विषय करके पतन को प्राप्त हो जाता है। शेष मध्यम प्रतिपाति के अनेक प्रकार हैं / जैसे तेल एवं वर्तिका के होते हुए भी वायु के झोंके से दीपक एकदम बुझ जाता है इसी प्रकार प्रतिपाति अवधिज्ञान का ह्रास धीरे-धीरे नहीं होता अपितु वह किसी भी क्षण एकदम लुप्त हो जाता है। अप्रतिपाति अवधिज्ञान २५--से कि तं अपडिवाति ओहिणाणं? __ अपडिवाति प्रोहिणाणं जेणं अलोगस्स एगमवि भागासपदेसं पासेज्जा तेण परं अपडिवाति प्रोहिणाणं / से तं प्रपडिवाति प्रोहिणाणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org