________________ ज्ञान के पांच प्रकार जिज्ञासुत्रों को समझने में आसानी रहे, इसलिए एक तालिका भी काल और क्षेत्र को समझने के लिए दी जा रही है-- क्षेत्र काल 1 एक अंगुल का असंख्यातवां भाग देखे / एक प्रावलिका का असंख्यातवाँ भाग देखे / 2 अंगुल का संख्यातवां भाग देखे / आवलिका का संख्यातवां भाग देखे / 3 एक अंगुल श्रावलिका से कुछ न्यून / 4 पृथक्त्व अंगुल एक प्रावलिका। 5 एक हस्त एक मुहूर्त से कुछ न्यून। 6 एक कोस एक दिवस से कुछ न्यून ! 7 एक योजन पथक्त्व दिवस। 8 पच्चीस योजन एक पक्ष से कुछ न्यून / ह भरतक्षेत्र अद्ध मास / 10 जम्बूद्वीप एक मास से कुछ अधिक / 11 अढ़ाई द्वीप एक वर्ष / 12 रुचक द्वीप पृथक्त्व वर्ष / 13 संख्यात द्वीप संख्यात काल। 14 संख्यात व असंख्यात द्वीप एवं समुद्रों की / पल्योपमादि असंख्यात काल / भजना हीयमान अवधिज्ञान २२-से कि तं हीयमाणयं प्रोहिणाणं? होणमाणयं ओहिणाणं प्रप्पसहि अज्झवसायट्ठाणेहि वट्टमाणस्स, वट्टमाणचरित्तस्स, संकिलिस्समाणस्स, संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वप्रो समंता प्रोही परिहीयते। से तं हीयमाणयं मोहिमाणं / २२-शिष्य ने प्रश्न किया-भगवन् ! हीयमान अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? आचार्य ने उत्तर दिया-अप्रशस्त-विचारों में वर्तने वाले अविरति सम्यष्टि जीव तथा अप्रशस्त अध्यवसाय में वर्तमान देशविरति और सर्वविरति-चारित्र वाला श्रावक या साधु जब अशुभ विचारों से संक्लेश को प्राप्त होता है तथा उसके चारित्र में संक्लेश होता है तब सब ओर से तथा सब प्रकार से अवधिज्ञान का पूर्व अवस्था से ह्रास होता है। इस प्रकार हानि को प्राप्त होते हुए अवधिज्ञान को हीयमान अवधिज्ञान कहते हैं। विवेचन--जब साधक के चारित्रमोहनीय कर्मों का उदय होता है तब आत्मा में अशुभ विचार पाते हैं / जब सर्वविरत, देशविरत या अविरत-सम्यग्दृष्टि संक्लिष्टपरिणामी हो जाते हैं तब उनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org