________________ 36] [नन्दीसूत्र विवेचन-पागम में 'पणग' अर्थात् पनक शब्द नीलन-फूलन (निगोद) के लिए आया है। सूत्रकार ने बताया है कि सूक्ष्म पनक जीव का शरीर तीन समय आहार लेने पर जितना क्षेत्र अवगाढ़ करता है उतना जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है। निगोद के दो प्रकार होते हैं--(१) सूक्ष्म (2) बादर / प्रस्तुत सूत्र में 'सूक्ष्म निगोद' को ग्रहण किया गया है-'सुहमस्स पणगजीवस्स' / सूक्ष्म निगोद उसे कहते हैं जहाँ एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं। ये जीव चर्म-चक्षों से दिखाई नहीं देते, किसी के भी मारने से मर नहीं सकते तथा सूक्ष्म निगोद के एक शरीर में रहते हुए वे अनन्त जीव अन्तर्मुहूर्त से अधिक आयु नहीं पाते। कुछ तो अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं तथा कुछ पर्याप्त होने पर। एक आवलिका असंख्यात समय की होती है तथा दो सौ छप्पन प्रावलिकाओं का एक 'खड्डाग भव' (क्षल्लक-क्षद्र भव) होता है। यदि निगोद के जीव अपर्याप्त अवस्था में निरन्तर काल करते रहें तो एक मुहूर्त में वे 65536 बार जन्म-मरण करते हैं / इस अवस्था में उन्हें वहाँ असंख्यातकाल बीत जाता है। कल्पना करने से जाना जा सकता है कि निगोद के अनन्त जीव पहले समय में ही सूक्ष्म शरीर के योग्य पुद्गलों का सर्वबंध करें, दूसरे समय में देशबंध करें, तीसरे समय में शरीरपरिमाण क्षेत्र रोकें, ठीक उतने ही क्षेत्र में स्थित पुद्गल जघन्य अवधिज्ञान का विषय हो सकते हैं / पहले और दूसरे समय का बना हुआ शरीर अतिसूक्ष्म होने के कारण अवधिज्ञान का जघन्य विषय नहीं बतलाया गया है तथा चौथे समय में वह शरीर अपेक्षाकृत स्थूल हो जाता है, इसीलिए सूत्रकार ने तीसरे समय के आहारक निगोदीय शरीर का ही उल्लेख किया है। आत्मा असंख्यात प्रदेशी है / उन प्रदेशों का संकोच एवं विस्तार कार्मणयोग से होता है। ये प्रदेश इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे सूक्ष्म निगोदीय जीव के शरीर में रह सकते हैं तथा जब विस्तार को प्राप्त होते हैं तो पूरे लोकाकाश को व्याप्त कर सकते हैं। जब आत्मा कार्मण शरीर छोड़कर सिद्धत्व को प्राप्त कर लेती है तब उन प्रदेशों में संकोच या विस्तार नहीं होता / क्योंकि कार्मण शरीर के अभाव में कार्मण-योग नहीं हो सकता है। प्रात्मप्रदेशों में संकोच तथा विस्तार सशरीरी जीवों में ही होता है / सबसे अधिक सूक्ष्म शरीर 'पनक' जीवों का होता है। अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र १५----सव्वबहु अगणिजीवा णिरंतरं जत्तियं भरेज्जसु / खेतं सवदिसागं परमोहीखेत्त निद्दिट्ट। १५--समस्त सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अग्निकाय के सर्वाधिक जीव सर्वदिशाओं में निरन्तर जितना क्षेत्र परिपूर्ण करें, उतना ही क्षेत्र परमावधिज्ञान का निर्दिष्ट किया गया है। विवेचन-उक्त गाथा में सूत्रकार ने अवधिज्ञान के उत्कृष्ट विषय का प्रतिपादन किया है / पाँच स्थवरों में सबसे कम तेजस्काय के जीव हैं, क्योंकि अग्नि के जीव सीमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं / सूक्ष्म सम्पूर्ण लोक में तथा बादर अढाई द्वीप में होते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org