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________________ ज्ञान के पाँच प्रकार [35 विवेचन-अनानुगामिक अवधिज्ञान वह होता है जिसके द्वारा ज्ञानप्राप्त आत्मा जिस भव में या जिस स्थान पर उत्पन्न हुना हो, उसी क्षेत्र में या उसी भव में रहते हुए संख्यात या असंख्यात योजनों तक रूपी पदार्थों को जान व देख सकता है किन्तु अन्यत्र चले जाने पर जान और देख नहीं सकता। उदाहरणार्थ जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी बड़े ज्योति-स्थान के समीप बैठकर या उसके चारों ओर घूमकर ज्योति के द्वारा प्रकाशित पदार्थों को देख सकता है किन्तु उस स्थान से उठकर अन्यत्र चले जाने पर वहाँ ज्योति न होने से किसी पदार्थ को देख या जान नहीं पाता। सूत्र में संबद्ध' एवं 'असम्बद्ध' शब्द आए हैं। उनका प्रयोजन यह है कि स्वावगाढ़ क्षेत्र से लेकर निरन्तर-लगातार पदार्थ जाने जाते हैं वे सम्बद्ध कहलाते हैं तथा जिन पदार्थों के बीच में अन्तराल होता है वे असम्बद्ध कहलाते हैं / तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम में बहुत विचित्रता होती है, अतएव कोई अनानुगामिक अवधिज्ञान जहाँ तक जानता है वहाँ तक निरन्तर--लगातार जानता है और कोई-कोई बीच में अन्तर करके जानता है / जैसे--कुछ दूर तक जानता है, आगे कुछ दूर तक नहीं जानता और फिर उससे आगे के पदार्थों को जानता है-इस प्रकार बीच-बीच में व्यवधान करके जानता है। वर्द्धमान अवधिज्ञान १३–से कि तं वड्डमाणयं प्रोहिणाणं ? वड्डमाणयं प्रोहिनाणं पसत्येसु अज्झवसाणट्ठाणेसु वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वनो समंता प्रोही वड्डइ / १३--प्रश्न–गुरुदेव ! वर्द्ध मान अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? उत्तर–अव्यवसायस्थानों या विचारों के विशुद्ध एवं प्रशस्त होने पर और चारित्र की वृद्धि होने पर तथा विशुद्धमान चारित्र के द्वारा मल-कलङ्क से रहित होने पर आत्मा का ज्ञान दिशाओं एवं विदिशाओं में चारों ओर बढ़ता है उसे वर्द्धमान अवधिज्ञान कहते हैं। विवेचन—जिस अवधिज्ञानी के प्रात्म-परिणाम विशुद्ध से विशुद्धतर होते जाते हैं, उसका अवधिज्ञान भी उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता जाता है। वर्द्धमानक अवधिज्ञान अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत को भी होता है / सूत्रकार ने 'विसुज्झमाणस्स' पद से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को तथा 'विक्षुज्झमाण चरित्तस्स' पद से देशविरत और सर्वविरत को इस ज्ञान का वृद्धिंगत होना सूचित किया है / अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र १४–जावतिया तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स / प्रोगाहणा जहन्ना, मोहोखेत्तं जहन्नं तु / १४–तीन समय के प्राहारक सूक्ष्म-निगोद के जीव की जितनी जघन्य अर्थात् कम से कम अवगाहना होती है--(दूसरे शब्दों में शरीर की लम्बाई जितनी कम से कम होती है) उतने परिमाण में जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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