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________________ [नन्दीसूत्र विवेचन---सूत्रकार ने अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान में रहे हुए अन्तर को विस्तृत रूप से बताया है। अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ है / वह ऊँचे-नीचे तथा तिर्छ-सभी दिशाओं में विशेष व सामान्य रूप से देख व जान सकता है। मध्यगत अवधिज्ञान देवों, नारकों एवं तीर्थंकरों को निश्चित रूप से होता है, तिर्यंचों को केवल अन्तगत हो सकता है किन्तु मनुष्यों को अन्तगत तथा मध्यगत दोनों ही प्रकार का आनुगामिक अवधिज्ञान हो सकता है / प्रज्ञापनासूत्र के तेतीसवें पद में बताया गया है-नारकी, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को सर्वत: अवधिज्ञान होता है, पंचेन्द्रिय तियञ्चों को देशतः एवं मनुष्यों को देशतः एवं सर्वतः दोनों प्रकार का अवधिज्ञान हो सकता है। सूत्र में संख्यात व असंख्यात योजनों का प्रमाण भी बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अवधिज्ञान के असंख्य भेद हैं। रत्नप्रभा के नारकों को जघन्य साढ़े तीन कोस और उत्कृष्ट चार कोस, शर्करप्रभा में नारकों को जघन्य तीन और उत्कृष्ट साढ़े तीन कोस, बालुकाप्रभा में नारकों को जघन्य अढाई कोस, उत्कृष्ट तीन कोस, पंक प्रभा में नारकों को जघन्य दो कोस और उत्कृष्ट अढ़ाई कोस, धूमप्रभा में नारकों को जघन्य डेढ़ कोस और उत्कृष्ट दो कोस, तमःप्रभा में जघन्य एक कोस एवं उत्कृष्ट डेढ़ कोस तथा सातवीं तमस्तमा पृथ्वी के नारकियों को जघन्य आधा कोस एवं उत्कृष्ट एक कोस प्रमाण अवधिज्ञान होता है / असुकुमारों को जघन्य 25 योजन तथा उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानने वाला, नागकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक और वाणव्यन्तर देवों को जघन्य 25 योजन तथा उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्रों को विषय करने वाला अवधिज्ञान होता है / ज्योतिष्क देवों को जधन्य तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन तक जानने वाला अवधिज्ञान होता है / सौधर्मकल्प के देवों का अवधिज्ञान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को, उत्कृष्ट रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त को विषय करने वाला अवधिज्ञान होता है। वे तिरछे लोक में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को और ऊँची दिशा में अपने कल्प के विमानों की ध्वजा तक जानते-देखते हैं। अनानुगामिक अवधिज्ञान १२-से कि तं प्रणाणुगामियं श्रोहिणाणं? प्रणाणगामियं प्रोहिणाणं से जहाणामए केइ पुरिसे एगं महंतं जोइट्ठाणं काउं तस्सेव जोइट्ठाणस्स परिपेरंतेहि परिपेरंतेहिं परिघोलेमाणे परिघोलेमाणे तमेव जोइट्ठाणं पासइ, अण्णत्थगए ण पासइ, एवामेव अणाणुगामियं ओहिणाणं जत्थेव समुप्पज्जइ तत्थेव संखेज्जाणि बा असंखेज्जाणि वा, संबद्धाणि वा प्रसंबद्धाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, अण्णत्थगए ण पासइ / से तं प्रणाणुगामियं प्रोहिणाणं। १२---प्रश्न--भगवन् ! अनानुगामिक अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? उत्तर-अनानुगामिक अवधिज्ञान वह है- जैसे कोई भी नाम वाला व्यक्ति एक बहुत बड़ा अग्नि का स्थान बनाकर उसमें अग्नि को प्रज्वलित करके उस अग्नि के चारों ओर सभी दिशाविदिशाओं में घूमता है तथा उस ज्योति से प्रकाशित क्षेत्र को ही देखता है, अन्यत्र न जानता है और न देखता है। इसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र में स्थित होकर संख्यात एवं असंख्यात योजन तक, स्वावगाढ क्षेत्र से सम्बन्धित तथा असम्बधित द्रव्यों को जानता व देखता है / अन्यत्र जाने पर नहीं देखता ! इसी को अनानुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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