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________________ ज्ञान के पांच प्रकार [33 यह अन्तगत अवधिज्ञान का कथन हुआ। तत्पश्चात् शिष्य ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! मध्यगत अवधिज्ञान कौन सा है ? गुरु ने उत्तर दिया-भद्र ! जैसे कोई पुरुष उल्का, तृणों की पूलिका, अग्रभग में प्रज्वलित काठ को, मणि को या प्रदीप को अथवा शरावादि में रखी हुई अग्नि को मस्तक पर रखकर चलता है। वह पुरुष उपर्युक्त प्रकाश के द्वारा सर्व दिशाओं में स्थित पदार्थों को देखते हुए चलता है। इसी प्रकार चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए जो ज्ञान ज्ञाता के साथ चलता है उसे मध्यगत अवधिज्ञान कहा गया है। विवेचन-यहाँ सूत्रकार ने प्रानुगामिक अवधिज्ञान और उसके भेदों का वर्णन किया है। आत्मा को जिस स्थान एवं भव में अवधिज्ञान उत्पन्न हया हो यदि वह स्थानान्तर होने पर भी तथा दूसरे भव में भी आत्मा के साथ चला जाए तो उसे प्रानुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं / इसके दो भेद हैं—अन्तगत और मध्यगत / यहाँ 'अन्त' शब्द पर्यंत का वाची है / यथा--'वनान्ते' अर्थात् वन के किसी छोर में / इसी प्रकार अन्तवर्ती प्रात्म-प्रदेशों के किसी भाग में विशिष्ट क्षयोपशम होने पर ज्ञान उत्पन्न होता है उसे अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं। कहा है-"अन्तगतम् अात्मप्रदेशानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतम् / " जैसे गवाक्ष जाली आदि के द्वार से बाहर आती हुई प्रदीप की प्रभा प्रकाश करती है, वैसे अवधिज्ञान की समुज्ज्वल किरणें स्पर्द्धकरूप छिद्रों से बाह्य जगत् को प्रकाशित करती है / एक जीव के संख्यात तथा असंख्यात स्पर्द्धक होते हैं / उनका स्वरूप विचित्र प्रकार का होता है। प्रात्मप्रदेशों के आखिरी भाग में जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसके अनेक प्रकार हैं। कोई आगे की दिशा को प्रकाशित करता है, कोई पीछे की, कोई दाई और कोई वाईं दिशा को। कोई इनसे विलक्षण मध्यगत अवधिज्ञान होता है, जो सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है। अन्तगत और मध्यगत में विशेषता ११–अन्तगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ? पुरनो अंतगएणं प्रोहिनाणेणं पुरनो चेव संखेज्जाणिवा असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाणइ पासइ, मग्गो अंतगएणं प्रोहिनाणेणं मग्गो चेव संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाणइ पासइ, पासपो अंतगएणं प्रोहिणाणेणं पासो चेव संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, मझगएणं प्रोहिणाणणं सबनो समंता संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ / से त्तं प्राणुगामियं श्रोहिणाणं / ११-शिष्य द्वारा प्रश्न-अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान में क्या अन्तर है ? उत्तर-पुरतः अवधिज्ञान से ज्ञाता सामने संख्यात अथवा असंख्यात योजनों में स्थित रूपी द्रव्यों को जानता है और सामान्य ग्राहक आत्मा से देखता है / मार्ग से--पीछे से अन्तगत अवधिज्ञान द्वारा पीछे से संख्यात अथवा असंख्यात योजनों में स्थित द्रव्यों को विशेष रूप से जानता है, तथा सामान्य रूप से देखता है। पार्वतः अन्तगत अवधिज्ञान से पार्श्व (बगल) में स्थित द्रव्यों को संख्यात अथवा असंख्यात योजनों तक विशेष रूप में जानता व सामान्य रूप से देखता है / इस प्रकार प्रानुगामिक अवधिज्ञान का वर्णन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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