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________________ [नन्दीसूत्र उत्तर-भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान देवों एवं नारकों को होता है। ८-दोण्हं खोवसमियं, तं जहा-मणुस्साणं च पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं च / को हेऊ खाश्रोसमियं? तयावरणिज्जाणं कम्माणं उदिण्णाणं खएणं, अणुदिण्णाणं उवसमेणं अोहिणाणं समुपज्जति / ८--प्रश्न—भगवन् ! क्षायोपशमिक अवधिज्ञान किनको होता है ? उत्तर-क्षायोपशमिक अवधिज्ञान दो को होता है-मनुष्यों को तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों को होता है। शिष्य ने पुन: प्रश्न किया-भगवन् ! क्षायोपमिक अवधिज्ञान की उत्पत्ति का हेतु क्या है ? गुरुदेव ने उत्तर दिया- जो कर्म अवधिज्ञान में रुकावट उत्पन्न करने वाले (अवधिज्ञानावरणीय) हैं, उनमें से उदयगत का क्षय होने से तथा अनदित कर्मों का उपशम होने से जो उत्पन्न है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है। विवेचन-मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना उत्पन्न होने वाले नोइन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान के तीन भेद बताए गए हैं-अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान / अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक एवं क्षायोपशमिक, इस प्रकार दो तरह का होता है / भवप्रत्यायिक अवधिज्ञान जन्म लेते ही प्रकट होता है, जिसके लिए संयम, तप अथवा अनुष्ठानादि की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु क्षायोपशमिक अवधिज्ञान इन सभी की सहायता से उत्पन्न होता है। अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति के जीव होते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकों को तथा क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों को होता है। उसे 'गुणप्रत्यय' भी कहते हैं / शंका की जाती है—अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में परिगणित है तो फिर नारकों और देवों को भव के कारण से कैसे कहा गया ? समाधान:- वस्तुतः अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में ही है / नारकों और देवों को भी क्षयोपशम से ही अवधिज्ञान होता है, किन्तु उस क्षयोपशम में नारकभव और देवभव प्रधान कारण होता है, अर्थात् इन भवों के निमित्त से नारकों और देवों को अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हो ही जाता है। इस कारण उनका अवधिज्ञान, भवप्रत्यय कहलाता है / यथा--पक्षियों की उड़ानशक्ति जन्म-सिद्ध है, किन्तु मनुष्य बिना वायुयान, जंघाचरण अथवा विद्याचरण लब्धि के गगन में गति नहीं कर सकता। अवधिज्ञान के छह भेद ६-अहवा गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स प्रोहिणाणं समुप्पज्जति / तं समासो छव्विहं पण्णत्तं, तं जहा (1) प्राणुगामियं (2) प्रणाणुगामियं (3) वड्ढमाणयं (4) हायमाणयं (5) पडिवाति (6) अपडिवाति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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