________________ 16] [नन्दीसूत्र ४६--सुमुणिय-णिच्चा णिच्चं, सुमुगिय-सुत्तत्थधारयं वंदे / सम्भावुभावणया, तत्थं लोहिच्चणामाणं // ४६-नित्यानित्य रूप से द्रव्यों को समीचीन रूप से जानने वाले, सम्यक् प्रकार से समझे हुए सूत्र और अर्थ के धारक तथा सर्वज्ञ-प्ररूपित सद्भावों का यथाविधि प्रतिपादन करने वाले (31) श्री लोहित्याचार्य को नमस्कार करता हूँ। ४७-प्रत्थ-महत्थक्खाणि, सुसमणवक्खाण-कहण-निवाणि / पयईए महुरवाणि, पयो पणमामि दूसगणि / / ४७–शास्त्रों के अर्थ और महार्थ की खान के सदृश अर्थात् भाषा, विभाषा, वातिकादि से अनुयोग के व्याख्याकार, सुसाधुओं को आगमों की वाचना देते समय शिष्यों द्वारा पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देने में संतोष व समाधि का अनभव करने वाले, प्रकृति से मधुर, ऐसे प्राचार्य (32) श्री दृष्यगणी को सम्मानपूर्वक वन्दन करता हूँ। ४८-तव-नियम-सच्च-संजम-विणयज्जव-खंति-मद्दवरयाणं / सीलगुणगद्दियाणं, अणुप्रोग-जुगप्पहाणाणं // ४८-वे दृष्य गणी तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव (सरलता), क्षमा, मार्दव (नम्रता) प्रादि श्रमणधर्म के सभी गुणों में संलग्न रहने वाले, शील के गुणों से प्रख्यात और अनुयोग की व्याख्या करने में युगप्रधान थे / (ऐसे श्रीदूष्यगणि को वन्दन करता हूँ।) ४६-सुकुमालकोमलतले, तेसि पणमामि लक्खणपसत्थे / पाए पावयणीणं, पडिच्छिय-सएहिं पणिवइए। ४६-पूर्वकथित गुणों से युक्त, उन सभी युगप्रधान प्रवचनकार आचार्यों के प्रशस्त लक्षणों से सम्पन्न, सुकुमार, सुन्दर तलवे वाले और सैकड़ों प्रातीच्छिकों के अर्थात् शिष्यों के द्वारा नमस्कृत, महान् प्रवचनकार श्री दुष्यगगि के पूज्य चरणों को प्रणाम करता हूँ। विवेचन-जो साधु अपने गण के प्राचार्य से आज्ञा प्राप्त करके किसी दुसरे गण के प्राचार्य के समीप अनुयोग-सूत्रव्याख्यान श्रवण करने के लिए जाते हैं और उस गण के प्राचार्य उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वे प्रातीच्छिक शिष्य कहलाते हैं। ५०–जे अन्ने भगवंते, कालिय-सुय-प्राणोगिए धोरे / ते पणमिऊण सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं / ५०-प्रस्तुत गाथाओं में जिन अनुयोगधर स्थविरों और आचार्यों को वन्दन किया गया है, उनके अतिरिक्त अन्य जो भी कालिक सूत्रों के ज्ञाता और अनुयोगधर धोर प्राचार्य भगवन्त हुए हैं, उन सभी को प्रणाम करके (मैं देव वाचक) ज्ञान की प्ररूपणा करूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org