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________________ युग-प्रधान-स्थविरालिका-वन्दन] [15 ४०—मिउ-मद्दव सम्पन्न, अणुपुची-वायगत्तणं पत्ते / मोहसुयसमायारे, नागज्जणवायए बंदे / / ४०-जो अत्यन्त मृदु---कोमल मार्दव, आर्जव आदि भावों से सम्पन्न थे, जो अवस्था व चारित्रपर्याय के क्रम से वाचक पद को प्राप्त हुए तथा अोघथ त का समाचरण करने वाले थे, उन (28) श्री नागार्जुन वाचक को वन्दन करता हूँ। ४१---गोविंदाणं पि नमो, अणुनोगे विउलधारणिदाणं / णिच्चं खंतिदयाणं परूवणे दुलभिदाणं / / ४२-तत्तो य भूयदिन्न', निच्चं तवसंजमे अनिविष्णं / पंडियजण-सम्माणं, वंदामो संजमविहिष्णु / ४१-४२–अनुयोग सम्बन्धी विपुल धारणा रखने वालों में इन्द्र के समान (प्रधान), सदा क्षमा और दयादि की प्ररूपणा करने में इन्द्र के लिए भी दुर्लभ ऐसे (29) श्रीगोविन्दाचार्य को नमस्कार हो। तत्पश्चात् तप-संयम की साधना-आराधना करते हुए, प्राणान्त उपसर्ग होने पर भी जो खेद से रहित विद्वद्-जनों से सम्मानित, संयम-विधि-उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के परिज्ञाता थे, उन (30) आचार्य भूतदिन्न को वन्दन करता हूँ। ४३--वर-कणग-तविय-चंपग-विमउल-वर-कमल-गम्भसरिवन्न / भविय-जण-हियय-दइए, दयागुणविसारए धीरे / / ४४-अड्ढभरहप्पहाणे, बहुविहसज्झाय-सुमुणिय-पहाणे / अणुरोगिय-वरवसमे नाइलकुल-वंसनंदिकरे / / ४५-जगभूयहियपगमे, वंदेऽहं भूयदिनमायरिए। भव-भय-वुच्छेयकरे, सीसे नागज्जणरिसीणं / / ४३.४४-४५–जिनके शरीर की कान्ति तपे हुए स्वर्ण के समान देदीप्यमान थी अथवा स्वणिम वर्ण वाले चम्पक पुष्प के समान थी या खिले हुए उत्तम जातीय कमल के गर्भ-पराग के तुल्य गौर वर्ण युक्त थी जो भव्यों के हृदय-वल्लभ थे, जन-मानस में करुणा भाव उत्पन्न करने में तथा करुणा करने में निपुण थे, धैर्यगुण सम्पन्न थे, दक्षिणार्द्ध भरत में युग प्रधान, बहुविध स्वाध्याय के परिज्ञाता, सुयोग्य संयमी पुरुषों को यथा योग्य स्वाध्याय, ध्यान, वैयावृत्य आदि शुभ क्रियायों में नियुक्तिकर्ता तथा नागेन्द्र कुल को परम्परा की अभिवृद्धि करने वाले थे, सभी प्राणियों को उपदेश देने में निपुण और भव-भीति के विनाशक थे, उन आचार्य श्री नागार्जुन ऋषि के शिष्य भूतदिन्न को मैं वन्दन करता हूँ। विवेचन-श्रीदेववाचक, प्राचार्य भूतदिन के परम श्रद्धालु थे। इसलिए प्राचार्य के शरीर का, गुणों का, लोकप्रियता का, गुरु का, कुल का, वंश का और यशः कीर्ति का परिचय उपर्युक्त तीन गाथाओं में दिया है। उनके विशिष्ट गुणों का दिग्दर्शन कराना ही वास्तविक रूप में स्तुति कहलाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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