________________ 14] [नन्दीसूत्र ३४–बड्ढउ बायगवंसो, जसवंसों अज्जनागहत्थीणं / वागरण-करण-भंगिय-कम्मापमडीपहाणाणं // ___३४-व्याकरण अर्थात् प्रश्नव्याकरण, अथवा संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के शब्दानुशासन में निपुण, पिण्डविशुद्धि आदि उत्तरक्रियायों और भंगों के ज्ञाता तथा कर्मप्रकृति की प्ररूपणा करने में प्रधान, ऐसे प्राचार्य नन्दिलक्षपण के पट्टधर शिष्य (22) आर्य नागहस्ती का वाचक वंश मूत्तिमान् यशोवंश की तरह अभिवृद्धि को प्राप्त हो। ३५–जच्चजणधाउसमप्पहाणं, मदियकुवलय-निहाणं / वड्ढउ बायगवंसो, रेवइनखत्त-नामाणं / ३५–उत्तम जाति के अंजन धातु के सदृश प्रभावोत्पादक, परिपक्व द्राक्षा और नील कमल अथवा नीलमणि के समान कांतियुक्त (23) आर्य रेवतिनक्षत्र का वाचक वंश वृद्धि प्राप्त करे। ३६–अयलपुरा णिक्खंते, कालिय-सुय-आणुप्रोगिए धीरे / बंभद्दीवग-सीहे, वायग-पय-मुत्तमं पत्ते / / ३६-जो अचलपुर में दीक्षित हुए, और कालिक श्रत की व्याख्या-व्याख्यान में अन्य प्राचार्यों से दक्ष तथा धीर थे. जो उत्तम वाचक पद को प्राप्त ए.ऐसे ब्रह्मदीपिक शाखा से उपलक्षित (24) प्राचार्य सिंह को वन्दन करता हूँ / ३७–जेसि इमो प्रणुप्रोगो, पयरइ अज्जावि अड्ढ-भरहम्मि / बहुनयर-निग्गय-जसे, ते वंदे खंदिलायरिए / ३७-जिनका वर्तमान में उपलब्ध यह अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्र में प्रचलित है, तथा अनेकानेक नगरों में जिनका सुयश फैला हुया है, उन (25) स्कन्दिलाचार्य को मैं बन्दन करता हूँ। ३८-तत्तो हिमवंत-महंत-विक्कमे धिइ-परक्कममणते / सज्झायमणंतधरे, हिमवंते वंदिमो सिरसा।। ३८-स्कन्दिलाचार्य के पश्चात् हिमालय के सदृश विस्तृत क्षेत्र में विचरण करनेवाले अतएव महान् विक्रमशाली, अनन्त धैर्यवान् और पराक्रमी, भाव की अपेक्षा से अनन्त स्वाध्याय के धारक (26) प्राचार्य हिमवान् को मस्तक नमाकर वन्दन करता हूँ। 36- कालिय-सुय-अणुयोगस्स धारए, धारए य पुवाणं / हिमवंत-खमासमणे वंदे णागज्जणारिए / / ३६--जो कालिक सूत्र सम्बन्धी अनुयोग के धारक और उत्पाद आदि पूर्वो के धारक थे, ऐसे महान् विशिष्ट ज्ञानी हिमवन्त क्षमाश्रमण को वन्दन करता हूँ। तत्पश्चात् (27) श्री नागार्जुनाचार्य को वन्दन करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org