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________________ 12]] [नन्दीसूत्र 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' अर्थात् जगत् का प्रत्येक पदार्थ पर्यायदृष्टि से उत्पन्न और विनष्ट होता है तथा द्रव्यदृष्टि से ध्रव नित्य-रहता है। इन तीन पदों से समस्त वृतार्थ को जान कर गणधर सूत्र रूप से द्वादशांग श्रुत की रचना करते हैं। वह श्रुत आज भी सांसारिक जीवों पर महान् उपकार कर रहा है / अतः गणधर देव परमोपकारी महापुरुष हैं / वीर-शासन की महिमा २४-निब्बुइपहसासणयं, जयइ सया सब्वभावदेसणयं / कुसमय-मय-नासणयं, जिणिदवरवीरसासणयं / / 24 सम्यग-ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप निर्वाण पथ का प्रदर्शक, जीवादि पदार्थों का अर्थात सर्व भावों का प्ररूपक, और कुदर्शनों के अहंकार का मर्दक जिनेन्द्र भगवान् का शासन सदा-सर्वदा जयवन्त है। विवेचन--(१) जिन-शासन मुक्ति-पथ का प्रदर्शक है (2) जिन प्रवचन सर्वभावों का प्रकाशक है (3) जिन-शासन कुत्सित मान्यताओं का नाशक होने से सर्वोत्कृष्ट और सभी प्राणियों के लिए उपादेय है। युग-प्रधान-स्थविरालिका-बन्दन २५-सुहम्म अग्गिवेसाणं, जंबू नामं च कासवं / पभवं कच्चायणं बंदे, वच्छं सिज्जंभवं तहा // २५–भगवान् महावीर के पट्टधर शिष्य (1) अग्निवेश्यायन गोत्रीय श्रीसुधर्मा स्वामी (2) काश्यपगोत्रीय श्रीजम्बूस्वामी (3) कात्यायनगोत्रीय श्रीप्रभव स्वामी तथा (4) वत्सगोत्रीय श्री शय्यम्भवाचार्य को मैं वन्दना करता हूँ। विवेचन-उक्त तथा आगे की गाथाओं में भगवान के निर्वाण पद प्राप्त करने के पश्चात गणाधिपति होने के कारण सुधर्मा स्वामी आदि कतिपय पट्टधर आचार्यों का अभिवादन किया गया है। यह स्थविरावली सुधर्मा स्वामी से प्रारम्भ होती है क्योंकि इनके सिवाय शेष गणधरों की शिष्यपरम्परा नहीं चली। २६--जसभ तुगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं / भद्दबाहुं च पाइन्न, थलभद्द च गोयनं / / 26--(5) तुगिक गोत्रीय यशोभद्र को, (6) माढर गोत्रीय भद्रबाहु स्वामी को तथा (8) गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र को वन्दन करता हूँ। २७-एलावच्चसगोत्तं, वंदामि महागिरि सुहत्थि च / तत्तो कोसिन-गोतं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे // 27-(9) एलापत्य गोत्रीय आचार्य महागिरि और (10) सुहस्ती को वन्दन करता हूँ। तथा कौशिक-गोत्र वाले बहुल मुनि के समान वय वाले बलिस्सह को भी वन्दन करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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