________________ 10] [नन्दीसूत्र गुणों से सम्पन्न मुनिजन कल्पवृक्ष के समान शोभायमान हो रहे हैं क्योंकि वे सुख के हेतु एवं कर्मफल के प्रदाता विविध प्रकार के योगजन्य लब्धिरूप सुपारिजात कुसुमों से परिव्याप्त हैं / इस प्रकार अलौकिक श्री से संघ-सुमेरु सुशोभित है / प्रलयकाल के पवन से भी मेरु पर्वत कभी विचलित नहीं होता है। इसी प्रकार संघरूपी मेरु भी मिथ्या-दृष्टियों के द्वारा दिये गये उपसर्गों और परिषहों से विचलित नहीं होता। वह अत्यन्त मनोहारी और नयनाभिराम है। अन्य प्रकार से संघमेरु को स्तुति १८-गुण-रयणुज्जलकडयं, सील-सुगंधि-तव-मंडिउद्देसं / सुय-बारसंग-सिहरं, संधमहामन्दरं वंदे // १८-सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र गुण रूप रत्नों से संघमेरु का मध्यभाग देदीप्यमान है / इसकी उपत्यकाएँ अहिंसा, सत्य आदि पंचशील की सुगंध से सुरभित हैं और तप से शोभायमान हैं / द्वादशांगश्रुत रूप उत्त ग शिखर हैं / इत्यादि विशेषणों से सम्पन्न विलक्षण महामन्दर गिरिराज के सदृश संघ को मैं वन्दन करता हूँ। विवेचन प्रस्तुत गाथा में संघ-मेरु को पूजनीय बनाने वाले चार विशेषण हैं-गुण, शील, तप और श्रुत / 'गुण' शब्द से मूल गुण और उत्तर गुण जानने चाहिए। 'शील' शब्द से सदाचार व पूर्ण ब्रह्मचर्य; 'तप' शब्द से छह बाह्य और छह आभ्यन्तर तप समझना चाहिए तथा श्रत शब्द से लोकोत्तर श्रु त / ये ही संघमेरु की विशेषताएँ हैं / __ संघ-स्तति विषयक उपसंहार 16-- नगर-रह-चक्क-पउमे, चन्दे सूरे समुद्द-मेरुम्मि / जो उवमिज्जइ सययं, तं संघगुणायरं वंदे // १६-नगर. रथ, चक्र, पद्म,चन्द्र, सूर्य, समुद्र, तथा मेरु, इन सव में जो विशिष्ट गुण समाहित हैं, तदनुरूप श्रीसंघ में भी अलौकिक दिव्य गुण हैं / इसलिए संघ को सदैव इनसे उपमित किया है / संघ अनन्तानन्त गुणों का अागर है / ऐसे विशिष्ट गुणों से युक्त संघ को मैं वन्दन करता हूँ। विवेचन–प्रस्तुत गाथा में आठ उपमानों से श्रीसंघ को उपमित करके संघ-स्तुति का उपसंहार किया गया है। स्तुतिकार ने गाथा के अन्तिम चरण में श्रद्धा से नतमस्तक हो श्रीसंघ को वन्दन किया है / जो तद्प गुणों का आकर है वही भाव निक्षेप है / अतः यहाँ नाम, स्थापना और द्रव्य रूप निक्षेप को छोड़कर केवल भाव निक्षेप ही वन्दनीय समझना चाहिए / चतुर्विशति-जिन-स्तुति २०-(वंदे) उसभं प्रजियं संभवमभिनंदण-सुमई सुप्पभं सुपासं। ससिपुप्फदंतसोयल-सिज्जसं वासुपुज्जं च / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org