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________________ संघ-महामन्दर स्तुति] विनय गुण से विनम्र उत्तम मुनिजन रूप विद्युत् की चमक से संघ-मेरु के प्राचार्य उपाध्याय रूप शिखर सुशोभित हो रहे हैं / संघ-सुमेरु में विविध प्रकार के मूल और उत्तर गुणों से सम्पन्न मुनिवर ही कल्पवृक्ष हैं, जो धर्म रूप फलों से सम्पन्न हैं और नानाविध ऋद्धि-रूप फूलों से युक्त हैं / ऐसे मुनिवरों से गच्छ-रूप वन परिव्याप्त हैं / जैसे मेरु पर्वत की कमनीय एवं विमल वैयमयी चूला है, उसी प्रकार संघ की सम्यकज्ञान रूप श्रेष्ठ रत्न हो देदीप्यमान, मनोज्ञ, विमल वैड्यमयी चूलिका है / उस संघ रूप महामेरु गिरि के माहात्म्य को मैं विनयपूर्वक नम्रता के साथ वन्दन करता हूँ। विवेचन–प्रस्तुत गाथा में स्तुतिकार ने श्रीसंघ को मेरु पर्वत की उपमा से अलंकृत किया है। जितनी विशेषताएँ मेरु पर्वत की हैं उतनी ही विशेषताएं संघ रूपी सुमेरु की हैं। सभी साहित्यकारों ने समेरु पर्वत का माहात्म्य बताया है। मेरु पर्वत जम्ब दीप के मध्य भा भाग में स्थित है, जो एक हजार योजन पृथ्वी में गहरा तथा निन्यानवे हजार योजन ऊँचा है। मल में : में उसका व्यास दस हजार योजन है। उस पर चार वन हैं-(१) भद्रशाल (2) सौमनस वन (3) नन्दन-वन (4) और पाण्डुक वन / उसमें तीन कण्डक हैं रजतमय, स्वर्णमय और विविध रत्नमय। यह पर्वत विश्व में सब पर्वतों से ऊँचा है / उसकी चालीस योजन की चूलिका (चोटी) है / मेरु पर्वत की वज्रमय पीठिका, स्वर्णमय मेखला तथा कनकमयी अनेक शिलाएं हैं। दीप्तिमान उत्तग अनेक कुट हैं। सभी वनों में नन्दनवन विलक्षण वन है कई प्रकार की धातुएँ हैं / इस प्रकार मेरु पर्वत विशिष्ट रत्नों का स्रोत है। अनेकानेक गुणकारी ओषधियों से परिव्याप्त है। कुहरों में अनेक पक्षियों के समूह हर्ष निनाद करते हुए कलरव करते हैं तथा मयूर नृत्य करते हैं। उसके ऊँचे-ऊँचे शिखर विद्युत् की प्रभा से दमक रहे हैं तथा उस पर वनभाग कल्पवृक्षों से सुशोभित हो रहा है / वे कल्पवृक्ष सुरभित फूलों और फलों से युक्त हैं। इत्यादि विशेषताओं से महागिरिराज विराजमान है और वह अतुलनीय है / इसो पर्वतराज की उपमा से चतुर्विध संघ को उपमित किया गया है। संघमेरु की पीठिका सम्यग्दर्शन है। स्वर्ण मेखला धर्म-रत्नों से मण्डित है तथा शम दम उपशम आदि नियमों को स्वर्ण-शिलाएँ हैं / पवित्र अध्यवसाय ही संघ मेरु के दीप्तिमान उत्तुग कूट हैं। प्रागमों का अध्ययन, शील, सन्तोष इत्यादि अद्वितीय गुणों रूप नन्दनवन से श्रीसंघ मेरु परिवत हो रहा है, जो मनुष्यों तथा देवों को भी सदा आनन्दित कर रहा है / नन्दनवन में आकर देव भी प्रसन्न होते हैं। संघ-समेरु प्रतिवादियों के कतर्क यक्त प्रसद्वाद का निराकरण रूप नानाविध धातुओं से सुशोभित है। श्रतज्ञान रूप रत्नों से प्रकाशमान है तथा ग्रामर्ष अादि 28 लब्धिरूप ओषधियों से परिव्याप्त है। ___ वहाँ संवर के विशुद्ध जल के झरने निरन्तर बह रहे हैं। वे झरने मानो श्रीसंघमेरु के गले में सुशोभित हार हों, ऐसे लग रहे हैं / संघ-सुमेरु को प्रवचनशालाएँ जिनवाणी के गंभीर घोष से गज रही हैं, जिसे सुनकर श्रावक-गण रूप मयूर प्रसन्नता से झूम उठते हैं। विनय धर्म और नय-सरणि रूप विद्युत् से संघ-सुमेरु दमक रहा है / मूल गुणों एवं उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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