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________________ [नन्दीसूत्र संघ-महामन्दर-स्तुति १२–सम्म सण-वरवडर, दढ-रूढ-गाढावगाढपेढस्स / धम्म-वर-रयणमंडिय-चामीयर-मेहलागस्स // १३-नियमूसियकणय-सिलायलुज्जलजलंत चित्त-कडस्स / नंदणवण-मणहरसुरभि-सोलगंधुद्ध मायस्स // १४-जीवदया-सुन्दर कंद रुद्दरिय,–मुणिवर-मइंदइन्नस्स / हेउसयधाउपगलंत-रयणदित्तोसहिगुहस्स / / १५-संवरबर-जलपगलिय-उज्झरपविरायमाणहारस्स / सावगजण-पउररवंत-मोर नच्चंत कुहरस्स / १६–विणयनयप्पवर मुणिवर फुरंत-विज्जुज्जलंतसिहरस्स / विविह-गुण-कप्परुक्खग,-फलभरकुसुमाउलवणस्स // १७-नाणवर-रयण-दिपंत,-कंतवेरुलिय-विमलचलस्स / वंदामि विणयपणनो,-संघमहामंदरगिरिस्स // १२-१७-संघमेरु की भूपीठिका सम्यग्दर्शन रूप श्रेष्ठ वज्रमयी है अर्थात् वज्रनिर्मित है। तत्वार्थ-श्रद्धान ही मोक्ष का प्रथम अंग होने से सम्यक्-दर्शन ही उसकी सुदृढ प्राधार-शिला है। वह शंकादि दूषण रूप विवरों से रहित है / प्रतिपल विशुद्ध अध्यवसायों से चिरंतन है / तीव्र तत्त्वविषयक अभिरुचि होने से ठोस है, सम्यक् बोध होने से जीव आदि नव तत्त्वों एवं षड् द्रव्यों में निमग्न होने के कारण गहरा है। उसमें उत्तर गुण रूप रत्न हैं और मूल गुण स्वर्ण मेखला है। उत्तर गुणों के अभाव में मूल गुणों की महत्ता नहीं मानी जाती अतः उत्तर गुण ही रत्न हैं, उनसे खचित मूल गुण रूप सुवर्ण-मेखला है, उससे संघ-मेरु अलंकृत है। संघ-मेरु के इन्द्रिय और नोइन्द्रिय का दमन रूप नियम ही उज्ज्वल स्वर्णमय शिलातल हैं। प्रशभ अध्यवसायों से रहित प्रतिक्षण कर्म-कलिमल के धुलने से तथा उत्तरोत्तर सूत्र और अर्थ के स्मरण करने से उदात्त चित्त ही उन्नत कूट हैं एवं शोल रूपी सौरभ से परिव्याप्त संतोषरूपी मनोहर नन्दनवन है / संघ-सुमेरु में स्व-परकल्याण रूप जीव-दया ही सुन्दर कन्दराएँ हैं। वे कन्दराएं कर्मशत्रयों को पराजित करने वाले तथा परवादी-मृगों पर विजयप्राप्त दुर्घर्ष तेजस्वी मुनिगण रूपी सिंहों से प्राकीर्ण हैं और कुबुद्धि के निरास से सैकड़ों अन्वय-व्यतिरेकी हेतु रूप धातुओं से संघ रूप सुमेरु भास्वर है तथा विशिष्ट क्षयोपशम भाव जिनसे कर रहा है ऐसी व्याख्यान-शाला रूप कन्दराएँ देदीप्यमान हो रही हैं। संघ-मेरु में प्राश्रवों का निरोध हो श्रेष्ठ जल है और संवर रूप जल के सतत प्रवहमान झरने ही शोभायमान हार हैं / तथा संघ-सुमेरु के श्रावकजन रूपी मयूरों के द्वारा प्रानन्द-विभोर होकर पंच परमेष्ठी की स्तुति एवं स्वाध्याय रूप मधुर ध्वनि किये जाने से कंदरा रूप प्रवचनस्थल मुखरित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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