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________________ संघ-सूर्य एवं संघ-समुद्र स्तुति] राहु से अग्रस्य अर्थात् ग्रसित नहीं होने वाला है, मिथ्यात्व-मल से रहित एवं स्वच्छ निर्मल निरतिचार सम्यक्त्व रूप ज्योत्स्ना से रहित है। ऐसे संघ-चन्द्र की सदा जय विजय हो / संघसूर्य की स्तुति १०-परतित्थिय-गहपहनासगम्स, तवतेय-दित्तलेसस्स / नाणुज्जोयस्स जए, भदं दमसंघ-सूरस्स / / १०-प्रस्तुत गाथा में श्रीसंघ को सूर्य की उपमा से उपमित किया गया है। परतीर्थ अर्थात एकान्तवादी, दुर्नय का आश्रय लेने वाले परवादी रूप ग्रहों की प्राभा को निस्तेज करने वाले, तप रूप तेज से सदैव देदीप्यमान, सम्यग्ज्ञान से उजागर, उपशम प्रधान संघ रूप सूर्य का कल्याण हो। विवेचन-स्तुतिकार ने यहाँ संघ को सूर्य से उपमित किया है। जैसे सूर्योदय होते ही अन्य सभी ग्रह प्रभाहीन हो जाते हैं, वैसे ही श्रीसंघ रूपी सूर्य के सामने अन्य दर्शनकार, जो एकान्तवाद को लेकर चलते हैं, प्रभाहीन-निस्तेज हो जाते हैं / अत: साधक जीवों को चतुर्विध श्रीसंघ-सूर्य से दूर नहीं रहना चाहिये / फिर अविद्या, अज्ञान तथा मिथ्यात्व का अन्धकार जीवन को कभी भी प्रभावित नहीं कर सकता / अतः यह संघ-सूर्य कल्याण करने वाला है। संघसमुद्र की स्तुति ११--भई धिई-वेला-परिगयस्स, सज्झाय-जोग-मगरस्स / अक्खोहस्स भगवप्रो, संघ-समुद्दस्स रुदस्स // ११-जो धृति अर्थात् मूल गुण तथा उत्तर गुणों से वृद्धिंगत आत्मिक परिणाम रूप बढ़ते हुए जल की वेला से परिव्याप्त है, जिसमें स्वाध्याय और शुभ योग रूप मगरमच्छ हैं, जो कर्मविदारण में महाशक्तिशाली है, और परिषह, उपसर्ग होने पर भी निष्कंप-निश्चल है, तथा समस्त ऐश्वर्य से सम्पन्न एवं विस्तृत है. ऐसे संघ समुद्र का भद्र हो। विवेचन-प्रस्तुत गाथा में श्रीसंघ को समुद्र से उपमित किया गया है / जैसे जलप्रवाह के बढ़ने से समुद्र में मिया उठती हैं, और मगरमच्छ आदि जल-जन्तु उसमें विचरण करते हैं, वह अपनी मर्यादा में सदा स्थित रहता है / उसके उदर में असंख्य रत्नराशि समाहित हैतथा अनेक नदियों का समावेश होता रहता है / इसी प्रकार श्रीसंघ रूप समुद्र में भी क्षमा, श्रद्धा, भक्ति, संवेगनिर्वेग आदि सद्गुणों की लहरें उठती रहती हैं / श्रीसंघ स्वाध्याय द्वारा कर्मों का संहार करता है और परिषहों एवं उपसर्गों से क्षुब्ध नहीं होता। श्रीसंघ में अनेक सद्गुण रूपी रत्न विद्यमान हैं / श्रीसंघ अात्मिक गुणों से भी महान है। समुद्र चन्द्रमा की ओर बढ़ता है तो श्रीसंघ भी मोक्ष की ओर अग्रसर होता है तथा अनन्त गुणों से गंभीर है / ऐसे भगवान् श्रीसंघ रूप समुद्र का कल्याण हो। प्रस्तुत सूत्रगाथा में स्वाध्याय को योग प्रतिपादित करके शास्त्रकार ने सूचित किया है कि स्वाध्याय चित्त की एकाग्रता का एक सबल साधन है और उससे चित्त की अप्रशस्त वृत्तियों का निरोध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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