________________ कोई ग्रामीण पण्डित किसी भी विषय में विद्वत्ता नहीं रखता और न अनादर के भय से किसी विद्वान् से कुछ पूछता ही है किन्तु केवल वातपूर्ण वस्ति वायु से भरी हुई मशक के समान लोगों से अपने पांडित्य की प्रशंसा सुनकर फलता रहता है उसी प्रकार जो लोग अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझते, उनकी सभा दुर्विदग्धा कहलाती है। ज्ञानवाद : इतनी भूमिका बाँधने के बाद सूत्रकार अपने मूल विषय पर पाते हैं। वह विषय है ज्ञान। ज्ञान क्या है ? ज्ञान पाँच प्रकार का है---१. ग्राभिनिवोधिकज्ञान, 2. श्रतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4. मनपर्ययज्ञान और 5. केवलज्ञान। यह ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का है-प्रत्यक्ष और परोक्ष / प्रत्यक्ष का क्या स्वरूप हैं? प्रत्यक्ष के पुन: दो भेद हैं--इन्द्रिय-प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष / इन्द्रिय-प्रत्यक्ष क्या है ? इन्द्रिय प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का है--१. श्रोत्रन्द्रिय-प्रत्यक्ष, 2. चक्षुरिन्द्रिय-प्रत्यक्ष, 3. नाणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, 4. जिह्वन्द्रिय-प्रत्यक्ष, 5. स्पर्शेन्द्रिय-प्रत्यक्ष / नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष क्या है ? नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-१. अवधिज्ञान-प्रत्यक्ष, 2. मनःपर्ययज्ञान-प्रत्यक्ष, 2. केवलज्ञान-प्रत्यक्ष / संक्षेप में नन्दीसूत्र में ये ही विषय हैं। वस्तुतः मुख्य विषय पञ्चज्ञान-वाद ही है। ग्रागमिक पद्धति से यह प्रमाण का ही निरूपण है। जैन-दर्शन ज्ञान को प्रमाण मानता है, उस का विषय विभाजन तथा प्रतिपादन दो पद्धतियों से किया गया है-आगमिक-पद्धति और तर्क-पद्धति / नन्दीसूत्र में, अावश्यकनियुक्ति में और विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञानवाद का अत्यन्त विस्तार से वर्णन किया गया है। नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु, नन्दी-सूत्रकार देववाचक और भाष्यकार जिनभद्र क्षमाश्रमण प्रागमिक परम्परा के प्रसिद्ध एवं समर्थ व्याख्याकार आगमों में नन्दीसूत्र की परिगणना दो प्रकार से की जाती है-मूल सूत्रों में तथा चूलिका सूत्रों में / स्थानकवासी परम्परा की मान्यतानुसार मूल सूत्र चार हैं- उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वार / श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र को चलिका सूत्र स्वीकार करती है। ये दोनों अागम समस्त प्रागमों में चूलिका रूप रहे हैं। दोनों की रचना अत्यन्त सुन्दर, सरस एवं व्यवस्थित है / विषयनिरूपण भी अत्यन्त गम्भीर है। भाव, भाषा और शैली की दष्टि से भी दोनों का आगमों में अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान है। व्याख्या-साहित्य : आगमों के गम्भीर भावों को समझने के लिए प्राचार्यों ने समय-समय पर जो व्याख्या-ग्रन्थ लिखे हैं, वे हैं-नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीका / इस विषय में, मैं पीछे लिख आया हूँ। नन्दीसूत्र पर नियुक्ति एवं भाष्य-दोनों में से एक भी अाज उपलब्ध नहीं है / चणि एवं अनेक संस्कृत टीकाएँ आज उपलब्ध हैं। चणि वहत विस्तृत नहीं है। प्राचार्य हरिभद्र कृत संस्कृत टीका, चणि का ही अनुगमन करती है। आचार्य मलगिरि कृत नन्दी टीका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गम्भीर भावों को समझने के लिए इससे सुन्दर अन्य कोई व्याख्या नहीं है। प्राचार्य प्रात्मारामजी महाराज ने नन्दी सूत्र की हिन्दी भाषा में एक सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है। प्राचार्य हस्तीमलजी महाराज ने भी नन्दीसूत्र की हिन्दी व्याख्या प्रस्तुत की है। प्राचार्य घासीलालजी महाराज ने नन्दीसूत्र की संस्कृत, हिन्दी और गुजराती में सुन्दर व्याख्या की है। [28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org