________________ के प्रयोजन अथवा विषय को दृष्टि में रखते हुए ऐसी कुछ आवश्यक बातों पर प्रकाश डाला गया है जिनका समावेश प्राचार्य ग्रन्थ के किसी अध्ययन में न कर सके / आजकल इस प्रकार का कार्य पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट जोड़कर सम्पन्न किया जाता है / नन्दी और अनुयोगद्वार भी आगमों के लिए परिशिष्ट का ही कार्य करते हैं / इतना ही नहीं, आगमों के अध्ययन के लिए ये भूमिका का भी काम देते हैं / यह कथन नन्दी की अपेक्षा अनुयोगद्वार के विषय में अधिक सत्य है। नन्दी में तो केवल ज्ञान का ही विवेचन किया गया है, जबकि अनुयोगद्वार में आवश्यक सूत्र की व्याख्या के बहाने समग्र ग्रागम की व्याख्या अभीष्ट है। अतएव उसमें प्रायः प्रागमों के समस्त मूलभूत सिद्धान्तों का स्वरूप समझाते हए विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण किया गया है जिनका ज्ञान आगमों के अध्ययन के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। अनुयोगद्वारसूत्र समझ लेने के पश्चात् शायद ही कोई प्रागमिक परिभाषा ऐसी रह जाती है जिसे समझने में जिज्ञासु पाठक को कठिनाई का सामना करना पड़े। यह चलिका-सूत्र होते हुए भी एक प्रकार से समस्त प्रागमों की प्रागम ज्ञान की नींव है और इसीलिए अपेक्षाकृत कठिन भी है। नन्दी सूत्र में पंचज्ञान का विस्तार से वर्णन किया गया है। नियुक्तिकार आदि प्राचार्यों ने नन्दी शब्द को ज्ञान का ही पर्याय माना है। सूत्रकार ने सर्वप्रथम 50 गाथाओं में मंगलाचरण किया है। तदनन्तर सूत्र के मूल विषय ग्राभिनिबोधिक ग्रादि पाँच प्रकार के ज्ञान की चर्चा प्रारम्भ की है। पहले प्राचार्य ने ज्ञान के पाँच भेद किये हैं। तदनन्तर प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष में इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के रूप में पुनः दो भेद किये हैं / इन्द्रिय प्रत्यक्ष में पांच भेद किये हैं और उसमें पाँच प्रकार की इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान का समावेश है। इस प्रकार के ज्ञान को जैन न्यायशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। नोइन्द्रियप्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यय एवं केवलज्ञान का समावेश है। परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का है-पाभिनिबोधिक और श्रत / प्राभिनिबोधिक को मति भी रहते हैं। प्राभिनिबोधिक के श्रतनिश्रित व अश्रुततिधित रूप दो भेद हैं। श्रुतज्ञान के अक्षर, अनक्षर, संजी, असंज्ञी, सम्यक, मिथ्या, सादि, अनादि, सावसान, निरवसान, गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट रूप चौदह भेद हैं। नन्दी सूत्र की रचना गद्य व पद्य दोनों में है। सूत्र का ग्रन्थमान लगभग 700 श्लोक प्रमाण है / प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित विषय अन्य सूत्रों में भी उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिए अवधि ज्ञान के विषय, संस्थान, भेद आदि पर प्रज्ञापना सूत्र के 33 वें पद में प्रकाश डाला गया है। भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) ग्रादि सूत्रों में विविध प्रकार के अज्ञान का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार मतिज्ञान का भी भगवती प्रादि सूत्रों में वर्णन मिलता है। द्वादशांगी श्रुत का परिचय समवायांग सूत्र में भी दिया गया है। किन्तु वह नन्दी सूत्र से कुछ भिन्न है। इसी प्रकार अन्यत्र भी कुछ बातों में नन्दीसूत्र से भिन्नता एवं विशेषता दृष्टिगोचर होती है। मंगलाचरण सर्वप्रथम सूत्रकार ने सामान्य रूप से अर्हत् को, तत्पश्चात् भगवान महावीर को नमस्कार किया है। तदनन्तर जैन संघ, चौबीस जिन, ग्यारह गणधर, जिनप्रवचन तथा सुधर्म आदि स्थविरों को स्तुतिपूर्वक प्रमाण किया है। जयइ जगजीव-जोणी-वियाणयो जगगुरू जगाणंदो। जगणाहो जगबंध, जयई जगप्पियामहो भयवं / [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org