SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नय-विचार:-- जैन परम्परा के ग्रागमों में प्रमाण के साथ-साथ प्रमाण के ही एक अंश नय का भी निरूपण किया गया है। नयों के सम्बन्ध में वर्णन स्थानांगसूत्र में, अनुयोगद्वार सूत्र में और भगवती सूत्र में भी विखरे हुए रूप में उपलब्ध होता है। आगमों में नय के स्थान पर दो शब्द और मिलते हैं आदेश और दष्टि / अनेकान्तात्मक वस्तु के अनन्त धर्मों में से जब किसी एक ही धर्म का ज्ञान किया जाता है, तब उसे नय कहा जाता है। भगवान् महावीर ने यह देखा कि जितने मत, पक्ष अथवा दर्शन हैं, वे अपना एक विशेष पक्ष स्थापित करते हैं और विपक्ष का निरास करते हैं। भगवान ने तात्कालिक उन सभी दार्शनिकों की दृष्टियों को समझने का प्रयत्न किया। उन्होंने अनुभव किया कि नाना मनुष्यों के वस्तु-दर्शन में जो भेद हो जाता है, उसका कारण केवल वस्तु की अनेकरूपता अथवा अनेकान्तात्मकता ही नहीं, बल्कि नाना मनुष्यों के देखने के प्रकार की अनेकता एवं नानारूपता भी कारण है / इसलिए उन्होंने सभी मतों, सभी दर्शनों को वस्तुस्वरूप के दर्शन में योग्य स्थान दिया है। किसी मत-विशेष एवं पंथ-विशेष का सर्वथा खण्डन एवं सर्वथा निराकरण नहीं किया है। निराकरण यदि किया है, तो इस अर्थ में कि जो एकान्त अाग्रह का विषय था, अपने ही पक्ष को अपने ही मत या दर्शन को सत्य और दूसरों के मत, दर्शन एवं पक्ष को मिथ्या कहने एवं मिथ्या मानने का जो कदाग्रह था तथा हठाग्रह था, उसका निराकरण करके उन सभी मतों को एवं विचारों को नया रूप दिया है, उसे एकांगी या अधूरा कहा गया है। प्रत्येक मतवादी कदाग्रही होकर दुसरे के मत को मिथ्या मानते थे। वे समन्वय न कर सकने के कारण एकान्तवाद के दलदल में फंस जाते थे। भगवान महावीर ने उन्हीं के मतों को स्वीकार करके उनमें से कदाग्रह का एवं मिथ्याग्रह का विष निकाल कर सभी का समन्वय करके अनेकान्तमयी संजीवनी औषध का ग्राविष्कार किया है। यही भगवान महावीर के नयवाद, दृष्टिवाद, आदेशवाद और अपेक्षावाद का रहस्य है। नयों के भेद के सम्बन्ध में एक विचार नहीं है। कम से कम दो प्रकार से प्रागमों में नय-दृष्टि का विभाजन किया गया है। सप्तनय-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत / एक दूसरे प्रकार से भी नयों का विभाजन किया गया है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक / वस्तुतः देखा जाये तो काल और देश के भेद से द्रव्यों में विशेषताएँ अवश्य होती हैं। किसी भी विशेषता को काल एवं देश से मुक्त नहीं किया जा सकता / अन्य कारणों के साथ काल और देश भी अवश्य साधारण कारण होते हैं। अतएव काल-और क्षेत्र पर्यायों के कारण होने से यदि पर्यायों में समाविष्ट कर लिए जाएँ तो मूल रूप से दो दृष्टियाँ ही रह जाती हैं--द्रव्यप्रधान दष्टि-द्रव्याथिक और पर्याय-प्रधान दृष्टि-पर्यायाथिक / पर्यायाथिक नय के लिए पागमों में प्रदेशार्थिक शब्द का प्रयोग भी किया गया है। एक अन्य प्रकार से भी नयों का विभाजन किया गया है—निश्चयनय और व्यवहारनय / जो दृष्टि स्व-ग्राश्रित होती है, जिसमें पर की अपेक्षा नहीं रहती, वह निश्चय है और जो दृष्टि परआश्रित होती है, जिसमें पर की अपेक्षा रहती है, वह व्यवहारनय / नय एक प्रकार का विशेष दृष्टिकोण है, विचार करने की पद्धति है और अनेकान्तवाद का मूल आधार है। आगमों में न्याय-शास्त्र समस्त वाद, कथा एवं विवाद आदि का भी यथाप्रसंग वर्णन ग्राता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मल प्रागमों में और उसके निकटवर्ती व्याख्या साहित्य में भी यथाप्रसंग जैन-दर्शन के मूल तत्वों का निरूपण, विवेचन और विश्लेषण किया है। नन्दीसूत्र का विषयः-- नन्दी और अनुयोगद्वार चूलिकासूत्र कहलाते हैं। चूलिका शब्द का प्रयोग उस अध्ययन अथवा ग्रन्थ के लिए होता है जिसमें अवशिष्ट विषयों का वर्णन अथवा वणित विषयों का स्पष्टीकरण किया जाता है। दशवकालिक और महानिशीथ के सम्बन्ध में इस प्रकार की चलिकाएँ-चलाएँ-चड़ाएँ उपलब्ध हैं। इनमें मूल ग्रन्थ [ 25 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy