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________________ महावीर से भी पहले थी। इसका प्रमाण राजप्रश्नीय सूत्र में है। भगवान महावीर ने अपने मुख से अतीत में होने वाले केशीकुमार श्रमण का वृत्तान्त राजप्रश्नीय में कहा है। शास्त्रकार ने केशीकुमार के मुख से पाँच ज्ञान का निरूपण कराया है। प्रागमों में पांच ज्ञानों के भेद तथा उपभेदों का जो वर्णन है, कर्म-शास्त्र में ज्ञानावरणीय कर्म के जो भेद एवं उपभेदों का वर्णन है, जीव मार्गणाओं में पाँच ज्ञानों का जो वर्णन है, तथा पूर्व गत में ज्ञानों का स्वतन्त्र निरूपण करने वाला जो ज्ञानप्रवाद पूर्व है इन सबसे यही फलित होता है, कि पंच ज्ञान की चर्चा भगवान महावीर की पूर्व परम्परा से चली आ रही है। भगवान महावीर ने अपनी वाणी में उसी को स्वीकार कर लिया था। इस ज्ञान चर्चा के विकासक्रम को आगम के आधार पर देखना हो, तो उसकी तीन भूमिकाएँ स्पष्ट दीखती हैं—प्रथम भूमिका तो वह है जिसमें ज्ञानों को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है। द्वितीय भूमिका में ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदों में विभक्त करके पाँच ज्ञानों में से मति और श्रुत को परोक्ष में तथा अवधि, मनःपर्याय और केबल को प्रत्यक्ष में माना गया है। तृतीय भूमिका में इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय में स्थान दिया गया है। इस प्रकार ज्ञान का स्वरूप और उसके भेद और उपभेदों के कारण ज्ञान के वर्णन ने आगमों में पर्याप्त स्थान ग्रहण किया है। पंच-जान-चर्चा के ऋमिक विकास की तीनों अागामिक भूमिकाओं की एक विशेषता रही है, कि इनमें जानचर्चा के साथ इतर दर्शनों में प्रचलित प्रमाण चर्चा का कोई सम्बन्ध या समन्वय स्थापित नहीं किया गया है। इन ज्ञानों में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के भेद के द्वारा आगमकारों ने वही प्रयोजन सिद्ध किया है, जो दुसरों ने प्रमाण और अप्रमाण के द्वारा सिद्ध किया है। प्रागमकारों ने प्रमाण या अप्रमाण जैसे विशेषण बिना दिए ही प्रथम के तीनों में अज्ञान-विपर्यय-मिथ्यात्व की तथा सम्यक्त्व की संभावना मानी है। और अन्तिम दो में एकान्त सम्यक्त्व ही बतलाया है। इस प्रकार आगमकारों ने पंच-ज्ञानों को प्रमाण और अप्रमाण न कहकर उन विशेषणों का प्रयोजन तो दूसरे प्रकार से निष्पन्न ही कर लिया है ज्ञान का वर्णन आगमों में अत्यन्त विस्तुत है। प्रमाण के विषय के मूल जैन आगमों में और उसके व्याख्या साहित्य में भी अति विस्तार के साथ तो नहीं, पर संक्षेप में प्रमाण की चर्चा एवं प्रमाण के भेदों-उपभेदों का कथन अनेक स्थानों पर पाया है। जैन-ग्राममों में प्रमाण-चर्चा ज्ञान चर्चा से स्वतन्त्र रूप से भी पाती है। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रमाण-शब्द को उसके विस्तृत अर्थ में लेकर प्रमाणों का भेद किया गया है। अनुयोगद्वार सूत्र के मत से अथवा नन्दी सूत्र के वर्णन से प्रमाण के दो भेद किये हैं-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष / इन्द्रिय प्रत्यक्ष में अनुयोगद्वार सूत्र ने पांचों इन्द्रियों के द्वारा होने वाले पाँच प्रकार के प्रत्यक्ष का समावेश किया है। नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण में जैन शास्त्र प्रसिद्ध तीन ज्ञानों का समावेश है-अवधि-प्रत्यक्ष, मन:पर्याय प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष / प्रस्तूत में 'नो' शब्द का अर्थ हैइन्दिय का अभाव / ये तीनों ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं हैं। वे ज्ञान केवल प्रात्मसापेक्ष हैं। जैन-परम्परा के अनुसार इन्द्रिय-जन्य ज्ञानों को परीक्ष-प्रमाण कहा जाता है। किन्तु प्रस्तुत में प्रमाण-चर्चा पर-सम्मत प्रमाणों के अाधार से की है। प्रतएव यहाँ उसी के अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। वह भी पर-प्रमाण के सिद्धान्त का अनुसरण करके ही कहा गया है / अनुयोगद्वार सूत्र में अनुमान के तीन भेद किये गये हैं-पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्ट-साधयंवत् / यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि अनुयोगद्वार में अनुमान के स्वार्थ और पदार्थ भेद नहीं बताए हैं। इस प्रकार मूल आगमों में और उसके व्याख्यात्मक साहित्य में अनुमान के अनेक प्रकार के भेदों का एवं उपभेदों का कथन भी है। अनुमान के अवयवों का भी वर्णन किया गया है। प्रत्यक्ष-प्रमाण और परोक्ष प्रमाण में अनेक प्रकार से वर्गीकरण किये गये हैं, किन्तु इनका यहाँ पर संक्षेप में कथन करना ही अभीष्ट है। [24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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