________________ कहलाता है / अस्तिकाय शब्द का अर्थ है—प्रदेशों का समूह / काल के प्रदेश नहीं होते अतः इसके साथ अस्तिकाय शब्द नहीं जोड़ा गया। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण एवं धर्म होते हैं। और प्रत्येक गुण की अनन्त पर्याएँ होती हैं / पर्याय के दो भेद हैं-जीव पर्याय और अजीव पर्याय / निक्षेप के सम्बन्ध में प्रागमों में वर्णन पाता है। निक्षेप का अर्थ है --न्यास। निक्षेप के चार भेद हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव / जैन सूत्रों की व्याख्याविधि का वर्णन अनुयोगद्वार सूत्र में आता है। यह धि कितनी प्राचीन है ? इसके विषय में निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु अनुयोगद्वार सूत्र के अध्ययन करने वाले व्यक्ति को इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है, कि व्याख्याविधि का अनुयोगद्वार सूत्र में जो वर्णन उपलब्ध है, वह पर्याप्त प्राचीन होना चाहिए। अनुयोग या व्याख्या के द्वारों के वर्णन में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों का वर्णन पाता है। अनुयोगद्वार सूत्र में तो निक्षेपों के विषय में पर्याप्त विवेचन है, किन्तु यह गणधरकृत नहीं समझा जाता। गणधरकृत अंगों में से स्थानांग सूत्र में 'सर्व' के जो प्रकार बताये हैं, वे सूचित करते हैं, कि निक्षेपों का उपदेश स्वयं भगवान महावीर ने दिया होगा / शब्द व्यवहार तो हम करते ही हैं, क्योंकि इसके बिना हमारा काम चलता नहीं। पर कभी-कभी यह हो जाता है, कि शब्दों के ठीक अर्थ को-वक्ता के विवक्षित अर्थ को न समझने से बड़ा अनर्थ हो जाता है। इस अनर्थ का निवारण निक्षेप के द्वारा भगवान महाबीर ने किया है। निक्षेप का अर्थ है—अर्थ-निरूपण-पद्धति / भगवान महावीर ने शब्दों के प्रयोग को चार प्रकार के अर्थों में विभक्त कर दिया है नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव / यह निक्षेप पद्धति प्राचीन से प्राचीन ग्राममों में उपलब्ध होती है और नूतन युग के न्याय ग्रन्थों में भी। उत्तर काल के प्राचार्यों ने इसका उल्लेख ही नहीं, नतन पद्धति से निरूपण भी किया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने स्वरचित 'जैनतर्कभाषा' में प्रमाण एवं नय निरूपण के साथ-साथ निक्षेप का निरूपण भी किया है। प्राममों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का भी अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है। इन चारों को दो प्रकार से कहा गया है-स्वचतुष्टय-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव तथा पर-चतुष्टय,पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव / एक ही वस्तु के विषय में जो नाना मतों की मृष्टि होती है, उसमें द्रष्टा की रुचि और शक्ति, दर्शन का साधन, दृश्य की दैशिक और कालिक स्थिति, दुष्टा की दैशिक और कालिक स्थिति, दृश्य का स्थूल और सूक्ष्म रूप प्रादि अनेक कारण हैं। यही कारण है कि प्रत्येक दृष्टा और दृश्य प्रत्येक क्षण में विशेष-बिशेष होकर, नाना मतों के सर्जन में निमित्त बनते हैं। उन कारणों की गणना करना कठिन है। अतएव तत्कृत विशेषों की परिगणना भी असंभव है। इसी कारण से वस्तुतः सूक्ष्म विशेषताओं के कारण से होने वाले नाना मतों का परिगणन भी असंभव है। इस असंभव को ध्यान में रखकर ही भगवान् महावीर ने सभी प्रकार की अपेक्षानों का साधारणीकरण करने का प्रयत्न किया है और मध्यम मार्ग से सभी प्रकार की अपेक्षाओं का वर्गीकरण चार प्रकार में किया है। ये चार प्रकार इस प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव / इन्हीं के आधार पर प्रत्येक वस्तु के भी चार प्रकार हो जाते हैं / प्रमाण-विचार : जैन ग्रागमों में ज्ञान और प्रमाण का वर्णन अनेक प्रकार से है और अनेक ग्रागमों में है। प्राचीन आगमों में प्रमाण की अपेक्षा ज्ञान का ही वर्णन अधिक व्यापकता से किया गया है। नन्दी-सूत्र में ज्ञान का विस्तार के साथ निरूपण किया गया है। प्रमाण और ज्ञान किसी भी वस्तु को जानने के लिए साधन हैं। ज्ञान के मुख्य रूप से पांच भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल / पंचज्ञान की चर्चा जैन-परम्परा में भगवान [23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org