________________ प्रकार का परिवर्तन महावीर ने नहीं किया। कर्म और आत्मा की जो मान्यता पार्श्वनाथ-युग में और उससे भी पूर्व जो ऋषभदेव युग और अरिष्टनेमि युग में थी उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन महावीर ने किया हो, अभी तक ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है। गुणस्थान, लेश्या, एवं ध्यान के स्वरूप में किसी प्रकार का भेद एवं अन्तर भगवान् महावीर ने नहीं डाला। यह सब प्रमेय विस्तार जैन-परम्परा में महावीर से पूर्व भी था। फिर प्रश्न होता है, महावीर ने जैन-परम्परा को अपनी क्या नयी देन दी? इसका उत्तर यही दिया जा सकता है, कि भगवान् महावीर ने नय और अनेकान्त दृष्टि, स्याद्वाद और सप्तभंगी जैन दर्शन को नयी देन दी है। महाबोर से पूर्व के साहित्य में एवं परम्परा में अनेकान्त एवं स्याद्वाद के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता हो, यह प्रमाणित नहीं होता / महावीर के युग में स्वयं उनके ही अनुयायी अथवा उस युग का अन्य कोई व्यक्ति, जब महावीर से प्रश्न करता तब उसका उत्तर भगवान् महावीर अनेकान्त दृष्टि एवं स्याद्वाद की भाषा में ही दिया करते थे / भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने से पहले जिन दस महास्वप्नों का दर्शन हुआ था, उसका उल्लेख भगवती सूत्र में हुआ है। इन स्वप्नों में से एक स्वप्न में महावीर ने एक बड़े चित्र-विचित्र पाँख वाले पुस्कोकिल को स्वप्न में देखा था। उक्त स्वप्न का फल यह बताया गया था, कि महावीर आगे चलकर चित्र-विचित्र सिद्धान्त (स्वपर-सिद्धान्त) को बताने वाले द्वादशांग का उपदेश करेंगे। बाद के दार्शनिकों ने चित्रज्ञान और चित्रपट को लेकर बौद्ध और न्याय वैशेषिक के सामने अनेकान्त को सिद्ध किया है। उसका मूल इसी में सिद्ध होता है। स्वप्न में दृष्ट पुस्कोकिल की पाँखों को चित्र-विचित्र कहने का और आगमों को विचित्र विशेषण देने का विशेष अभिप्राय तो यही मालूम होता है कि उनका उपदेश एकरंगी न होकर अनेक रंगी था---अनेकान्तवाद था। अनेकान्त शब्द में सप्त नय का वर्णन अन्तर्भूत हो जाता है। दूसरी बात जो इस सम्बन्ध में कहनी है, वह यह है, कि जैन अागमों में विभज्यवाद का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। सूत्रकृतांग सूत्र में भिक्ष कैसी भाषा का प्रयोग करे? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भिक्ष को उत्तर देते समय विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद का तात्पर्य ठीक समझने में जैन परम्परा के टीका-ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ भी सहायक होते हैं। बौद्ध 'मझिमनिकाय' में शुभमाणवक के प्रश्न के उत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा----हे माणवक ! मैं विभज्यवादी है, एकांशवादी नहीं। इसका अर्थ यह है कि जैन परम्परा के विभज्यवाद एवं अनेकान्त को बुद्ध ने भी स्वीकार किया था / विभज्यवाद वास्तव में किसी भी प्रश्न के उत्तर देने की अनेकान्तात्मक एक पद्धति एवं शैली ही है। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के विषय में इतना जान लेने के बाद ही स्यावाद की चर्चा उपस्थित होती है। स्थावाद का अर्थ है—क्रथन करने की एक विशिष्ट पद्धति / जब अनेकान्तात्मक वस्तु के किसी एक धर्म का उल्लेख ही अभीष्ट हो तब अन्य धर्मों के संरक्षण के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग जब भाषा एवं शब्द में किया जाता है तब यह कथन स्याद्वाद कहलाता है / स्याद्वाद और सप्तभंगी परस्पर उसी प्रकार संयुक्त हैं, जिस प्रकार नय और अनेकान्त / सप्तभंगी में सप्तभंग (सप्त-विकल्प) होते हैं। जिज्ञासा सात प्रकार की हो सकती है / प्रश्न भी सात प्रकार के हो सकते हैं। अत: उसका उत्तर भी सात प्रकार से दिया जा सकता है। वास्तव में यही स्यावाद है। जैन-दर्शन की अपनी मौलिकता और नतन उदभावना अनेकान्त और स्याद्वाद में ही है। द्रव्य के सम्बन्ध में जैन अागमों में अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार से वर्णन आया है। द्रव्य, गुण, और पर्याय-जैन-पागम-परम्परा में इन तीनों का व्यापक और विशाल दृष्टि से वर्णन किया गया है। द्रव्य में गुण रहता है, और गुण का परिणमन ही पर्याय है। इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय विभक्त हो हैं। मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद हैं-जीव-द्रव्य और अजीव द्रव्य / अथवा अन्य प्रकार से दो भेद समझने चाहिए-रूपी द्रव्य और अरूपी द्रव्य / द्रव्यों की संख्या छह है-जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल / इनमें से काल को छोड़कर शेष द्रव्यों के साथ जब अस्तिकाय लगा दिया जाता है, तब वह पंच-अस्तिकाय [ 22 } Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org