________________ रहा है ? आगम-कालीन दर्शन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—प्रमेय और प्रमाण अथवा ज्ञेय और ज्ञान / जहाँ तक प्रमेय और ज्ञेय का सम्बन्ध है, जैन आगामों में स्थान-स्थान पर अनेकान्त दृष्टि, सप्तभंगी, नय, निक्षेप, द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्व, पदार्थ, द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव, निश्चय और व्यवहार निमित्त और उपादान-नियति और पुरुषार्थ, कर्म और उसका फल, आचार और योग प्रादि विषयों का बिखरा हुग्रा वर्णन प्रागमों में उपलब्ध होता है। अब रहा इसके विभाग का प्रश्न ? उसके सम्बन्ध में यहाँ पर संक्षेप में इतना ही कहना है, कि ज्ञान का और उसके भेद-प्रभेदों का व्यापक रूप से वर्णन आगमों में उपलब्ध है। ज्ञान के क्षेत्र का एक भी अंग और एक भी भेद इस प्रकार का नहीं है, जिसका वर्णन पागम और उसके व्याख्या साहित्य में पूर्णता के साथ नहीं हुया हो। प्रमाण के सभी भेद और उपभेदों का वर्णन पागमों में उपलब्ध होता है। जैसे कि प्रमाण, और उसके प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भेद तथा अनुमान और उसके सभी अंग, उपमान और शब्द प्रमाण आदि के भेद भी मिलते हैं। नय के लिए प्रादेश एवं दष्टि शब्द का प्रयोग भी अति प्राचीन आगमों में किया गया है। नय के द्रव्याथिक और पर्यायाथिक भेद किये गये है। पर्यायाथिक के स्थान पर प्रदेशार्थिक शब्द प्रयोग भी अनेक स्थानों पर पाया है। सकलादेश और विकलादेश के रूप में प्रमाण सप्तभंगी एवं नय सप्तभंगी का रूप भी पागम एवं व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों का वर्णन अनेक प्रकार से दिया गया है / स्याद्वाद एवं अनेकान्त को सुन्दर ढंग से बतलाने के लिए स्कोकिल के स्वप्न का कथन भी रूपक का काम करता है। जीव की नित्यता एवं अनित्यता पर विचार किया गया है। न्याय-शास्त्र में प्रसिद्ध वाद, वितण्डा और जल्प जैसे शब्दों का ही नहीं, उनके लक्षणों का विधान भी प्रागमों के व्याख्यात्मक साहित्य में प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रमाण खण्ड में अथवा ज्ञान सम्बन्धी तत्त्वों का वर्णन आगमों में अनेक प्रसंगों में उपलब्ध होता है। जिसे पढ़कर यह जाना जा सकता है, कि आगम काल में जैन परम्परा की दार्शनिक दृष्टि क्या रही है। आगम काल में षद्रव्य और नव पदार्थों का वर्णन किस रूप में मिलता है और आगे चल कर इसका विकास और परिवर्तन किस रूप में होता है ? निश्चय ही जैन परम्परा का आगमकालीन दर्शन वेदकालीन वेद-परम्परा के दर्शन से अधिक विकसित और अधिक व्यवस्थित प्रतीत होता है। वेद-कालीन दर्शन में और आगमकालीन दर्शन में बड़ा भेद यह भी है, कि यहाँ पर वेद की भाँति बह-देववाद एवं प्रकृतिवाद कभी नहीं रहा। जैन-दर्शन अपने प्रारम्भिक काल से ही अथवा अपने अत्यन्त प्राचीन काल से प्राध्यात्मिक एवं तात्त्विक दर्शन रहा है। प्रमेय-विचार: दर्शन-साहित्य में प्रमेय एवं ज्ञेय दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है। प्रमेय का अर्थ है—जो प्रमा का विषय हो। ज्ञेय का अर्थ है—जो ज्ञान का विषय हो / सम्यकज्ञान को ही प्रमा कहा जाता है / ज्ञान विषयी होता है। ज्ञान से जो जाना जाता है, उसको विषय अथवा ज्ञेय कहा जाता है। किसी भी ज्ञेय और किसी भी प्रमेय का ज्ञान जैन परम्परा में अनेकान्त दष्टि से ही किया जाता है। जैन-दर्शन के अनुसार जब किसी भी विषय पर, किसी भी वस्तु पर अथवा किसी भी पदार्थ पर विचार किया जाता है तो अनेकान्त दष्टि के द्वारा ही उस का सम्यक निर्णय किया जा सकता है। प्राचीन तत्त्वव्यवस्था में, जो भगवान महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ परम्परा से ही चली आ रही थी, महावीर युग में उसमें क्या नयापन अाया, यह एक विचार का विषय है। जैन अनुश्रति के अनुसार भगवान महावीर ने किसी नये तत्त्वदर्शन का प्रचार नहीं किया, किन्तु उनसे 250 वर्ष पूर्व होने वाले तीर्थकर परमयोगी पार्श्वनाथ सम्मत आचार में तो महावीर ने कुछ परिवर्तन किया है, जिसकी साक्षी आगम दे रहे हैं, किन्तु पार्श्वनाथ के तत्त्व ज्ञान में उन्होंने किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया था। पांच ज्ञान, चार निक्षेप, स्व-चतुष्टय एवं पर-चतुष्टय, षट् द्रव्य, सप्त-तत्व, नव-पदार्थ, एवं पंच अस्तिकाय-इन [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org