________________ अपने दार्शनिक ज्ञान का उपयोग करना भी उन्होंने ठीक समझा है। उनकी टीकाओं में सभी दर्शनों की पूर्व पक्ष रूप से चर्चा उपलब्ध होती है। इतना ही नहीं, किन्तु जैन-तत्व को दार्शनिक ज्ञान के बल से निश्चित रूप में स्थिर करने का प्रयत्न भी देखा जाता है। हरिभद्र के बाद प्राचार्य शीलांकसूरि ने १०वीं शताब्दी में प्राचारांग और सूत्रकृतांग पर संस्कृत टीकाओं की रचना की। शीलांक के बाद प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शान्ति हुए। उन्होंने उत्तराध्ययन की बृहत् टीका लिखी है। इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए जिन्होंने नौ अंगों पर संस्कृत भाषा में टीकाएँ रची हैं। उनका जन्म समय विक्रम 1072 में और स्वर्गवास विक्रम 1135 में हुया / इन दोनों टीकाकारों ने पूर्व टीकात्रों का पूरा उपयोग तो किया ही है, अपनी ओर से भी कहीं-कहीं नयी दार्शनिक की है। यहाँ मल्लधारी हेमचन्द्र का नाम भी उल्लेखनीय है / वे १२वीं शताब्दी के महान विद्वान थे। परन्तु आगमों की संस्कृत टीका करने वालों में सर्वश्रेष्ठ स्थान तो प्राचार्य मलयगिरि का ही है। प्राञ्जल भाषा में दार्शनिक चर्चाओं से परिपूर्ण टीका यदि देखना हो, तो मलयगिरि की टीकाएँ देखनी चाहिए। उनकी टीकाएँ पढ़ने में शुद्ध दार्शनिक ग्रन्थ पढ़ने का आनन्द आता है। जैन-शास्त्र के धर्म, प्राचार, प्रमाण, नय, निक्षेप ही नहीं भूगोल एवं खगोल आदि सभी विषयों में उनकी कलम 'धाराप्रवाह से चलती है और विषय को इतना स्पष्ट करके रखती है कि उस विषय में दूसरा कुछ देखने की आवश्यकता नहीं रहती। ये प्राचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे। अतः इनका समय निश्चित रूप से 12 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध एवं 13 वीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जाना चाहिए। संस्कृत प्राकृत टीकात्रों का परिमाण इतना बड़ा है, और विषयों की चर्चाएं इतनी गहन एवं गम्भीर हैं, कि बाद में यह प्रावश्यक समझा गया, कि आगमों का शब्दार्थ करने वाली संक्षिप्त टीकाएँ भी हों। समय की गति ने संस्कृत व प्राकृत भाषाओं को बोल-चाल की जन भाषाओं से हटाकर मात्र साहित्य की भाषा बना दिया था / अतः तत्कालीन अपभ्रंश भाषा में बालावबोधों की रचना करने वाले बहुत हुए हैं, किन्तु अठारहवीं शती में होने वाले लोकागच्छ के धर्मसिंह मुनि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। क्योंकि इनकी दृष्टि प्राचीन अर्थ को छोड़कर कहीं-कहीं स्व.-सम्प्रदाय-सम्मत अर्थ करने की भी रही है। प्रागमसाहित्य की यह बहुत ही संक्षिप्त रूप-रेखा यहाँ प्रस्तुत की है। इसमें पागम के विषय में मुख्य-मुख्य तथ्यों का एवं प्रागम के दार्शनिक तथ्यों का संक्षेप में संकेत भर किया है। जिससे आगे चलकर आगमों के गुरु गंभीर सत्य-तथ्य को समझने में सहजता एवं सरलता हो सके / इससे दूसरा लाभ यह भी हो सकता है कि अध्ययनशील अध्यता प्रागमों के ऐतिहासिक मूल्य एवं महत्व को भली भांति अपनी बुद्धि की तुला पर तोल सक। निश्चय हो पागम कालो दार्शनिक तथ्यों को समझने के लिए मूल पागम से लेकर संस्कृत टीका पर्यन्त समस्त ग्रागमों के अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है। प्रागमों में दार्शनिक-तत्त्व मूल आगमों में क्या-क्या दार्शनिक-तत्त्व हैं, और उनका किस प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? उक्त प्रश्नों के समाधान के लिए यह प्रावश्यक हो जाता है, कि हम पागमगत दार्शनिक विचारों को समझने के लिए अपनी दष्टि को व्यापक एवं उदार रखें, साथ ही अपनी ऐतिहासिक दृष्टि को भी विलुप्त न होने दें। जिस प्रकार वेदकालीन दर्शन की अपेक्षा उपनिषद्-कालीन दर्शन प्रौढतर है, और गीता-कालीन दर्शन प्रौढ़तम माना जाता है, उसी प्रकार जैन दर्शन के सम्बन्ध में यही विचार है, कि आगमकालीन दर्शन की अपेक्षा आगम के व्याख्यासाहित्य में जैन दर्शन प्रौढ़तर हो गया है और तत्त्वार्थ सूत्र में पहुँच कर प्रौढ़तम / यहाँ पर हमें केवल यह देखना है, कि मूल प्रागमों में और गौण रूप से उसके व्याख्या-साहित्य में जैन दर्शन का प्रारम्भिक रूप क्या और कैसा [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org