________________ आगमों का व्याख्या-साहित्यः श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य 45 आगमों पर व्याख्या--साहित्य बहुत व्यापक एवं विशाल है। जैन-दर्शन का प्रारम्भिक रूप ही इन व्याख्यात्मक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता, बल्कि दर्शन-तत्त्व के गम्भीर से गम्भीर विचार भी आगम साहित्य के इस व्याख्यात्मक साहित्य में उपलब्ध होते हैं / आगमों की व्याख्या एवं टीका दो भाषा में हुई है प्राकृत और संस्कृत / प्राकृत टोका—नियुक्ति, भाष्य और चणि के नाम से उपल है / नियुक्ति और भाष्य पद्यमय हैं और चूणि गद्यमय है। उपलब्ध नियुक्तियों का अधिकांश भाग भद्रबाहु द्वितीय की रचना है। उनका समय विक्रम 5 वीं या 6 ठी शताब्दी है / नियुक्तियों में भद्रबाहु ने अनेक स्थलों पर एवं अनेक प्रसंगों पर दार्शनिक तत्वों की चर्चाएँ बड़े सुन्दर ढंग से की हैं। विशेष कर बौद्धों और चार्वाकों के विषय में नियुक्ति में जहाँ कहीं भी अवसर मिला उन्होंने खण्डन के रूप में अवश्य लिखा है। आत्मा का अस्तित्व उन्होंने सिद्ध किया। ज्ञान का सूक्ष्म निरूपण तथा अहिंसा का तात्विक विवेचन किया है / शब्दों के अर्थ करने की पद्धति में तो वे निष्णात थे ही / प्रमाण, नय और निक्षेप के विषय में लिखकर भद्रबाह ने जैन-दर्शन की भूमिका पक्की की है। किसी भी विषय की चर्चा का अपने समय तक का पूर्ण रूप देखना हो तो भाष्य देखना चाहिए / भाष्यकारों में प्रसिद्ध प्राचार्य संघदास गणि और प्राचार्य क्षमाश्रमण जिनभद्र हैं। इनका समय सातवीं शताब्दी है। जिनभद्र ने 'विशेषावश्यक भाष्य' में प्रागमिक पदार्थों का तर्कसंगत विवेचन किया है / प्रमाण, नय, और निक्षेप की सम्पूर्ण चर्चा तो उन्होंने की ही है, इसके अतिरिक्त तत्वों का भी तात्विक रूप से एवं युक्तिसंगत विवेचन उन्होंने किया है / यह कहा जा सकता है कि दार्शनिक चर्चा का कोई ऐसा विषय नहीं है जिस पर प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपनी समर्थ कलम न चलाई हो / 'बृहत्कल्प' भाष्य में प्राचार्य संघदास गणि ने साधुनों के आचार एवं विहार आदि के नियमों के उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की चर्चा दार्शनिक ढंग से की है। इन्होंने भी प्रसंगानुकूल ज्ञान, प्रमाण, नय और निक्षेप के विषय में पर्याप्त लिखा है। भाष्य साहित्य वस्तुतः आगम-युगीन दार्शनिक विचारों का एक विश्वकोष है। ___ लगभग 7 वी तथा 8 वीं शताब्दियों को चणियों में भी दार्शनिक तत्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं / चणिकारों में प्राचार्य जिनदास महत्तर बहुविश्रुत एवं प्रसिद्ध हैं। इनकी सबसे बड़ी चूणि 'निशीथ चूणि' है। जैन आगम साहित्य का एक भी विषय ऐसा नहीं है, जिसकी चर्चा संक्षेप में अथवा विस्तार में निशीथ चणि में न की गई हो। 'निशीथ चुणि' में क्या है ? इस प्रश्न की अपेक्षा, यह प्रश्न करना उपयुक्त रहेगा, कि 'निशीथ चणि' में क्या नहीं है। उममें ज्ञान और विज्ञान है, प्राचार और विचार हैं, उत्सर्ग और अपवाद हैं, धर्म और दर्शन हैं और परम्परा और संस्कृति हैं। जैन परम्परा के इतिहास को ही नहीं, भारतीय इतिहास को बहुत सी बिखरी कड़ियाँ 'निशीथ चणि' में उपलब्ध हो जाती हैं। साधक जीवन का एक भी अंग ऐसा नहीं है, जिसके विषय में चणिकार की कलम मौन रही हो। यहाँ तक कि बौद्ध जातकों के ढंग की प्राकृत कथाएँ भी इस चणि में काफी बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। अंहिसा, अनेकान्त, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, त्याग एवं संयम-इन सभी विषयों पर प्राचार्य जिनदास महत्तर ने अपनी सर्वाधिक विशिष्ट कृति 'निशीथ चणि' को एक प्रकार से विचाररत्नों का महान पाकर ही बना दिया है। 'निशीथ चणि' जैन परम्परा के दार्शनिक साहित्य में भी सामान्य नहीं एक विशेष कृति है, जिसे समझना आवश्यक है। जैन आगमों की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका प्राचार्य हरिभद्र ने लिखी है। उनका समय 757 विक्रम से 857 के बीच का है / हरिभद्र ने प्राकृत चूणियों का प्रायः संस्कृत में अनुवाद ही किया है। कहीं-कहीं पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org