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________________ 208]] [नन्दीसूत्र श्रु तज्ञान किसे दिया जाय ? प्राचार्य अथवा गुरु श्र तज्ञान देते हैं, किन्तु उन्हें भी ध्यान रखना होता है कि शिष्य सुपात्र है या कुपात्र / सुपात्र शिष्य अपने गुरु से श्रु तज्ञान प्राप्त करके स्व एवं पर के कल्याण-कार्य में जुट जाता है किन्तु कुपात्र या कुशिष्य उसी ज्ञान का दुरुपयोग करके प्रवचन अथवा ज्ञान की अवहेलना करता है / ठीक सर्प के समान, जो दूध पीकर भी उसे विष में परिणत कर लेता है। इसलिए कहा गया है कि-अविनीत, रसलोलुप, श्रद्धाविहीन तथा अयोग्य शिष्य तो श्रु तज्ञान के कचित् अनधिकारी हैं, किन्तु हठी और मिथ्यादृष्टि श्रुतज्ञान के सर्वथा ही अनधिकारी हैं / उनको बुद्धि पर विश्वास नहीं किया जा सकता। बुद्धि चेतना की पहचान है और दूसरे शब्दों में स्वत: चेतना रूप है / वह सदा किसी न किसी गुण या अवगुण को धारण किये रहती है। स्पष्ट है कि जो बुद्धि गुणग्राहिणी है वही श्र तज्ञान की अधिकारिणी है। पूर्वधर और धीर पुरुषों का कथन है कि पदार्थों का यथातथ्य स्वरूप बताने वाले आगम और मुमुक्षु अथवा जिज्ञासुओं को यथार्थ शिक्षा देने वाले शास्त्रों का ज्ञान तभी हो सकता है, जबकि बुद्धि के पाठ गुणों सहित विधिपूर्वक उनका अध्ययन किया जाय। गाथा में प्रागम और शास्त्र, इन दोनों का एक पद में उल्लेख किया गया है / यहाँ यह जानना आवश्यक है कि-जो आगम है वह तो निश्चय ही शास्त्र भी है, किन्तु जो शास्त्र है वह आगम नहीं भी हो सकता है, जैसे-अर्थशास्त्र, कोकशास्त्र आदि। ये शास्त्र कहलाते हैं किन्तु आगम नहीं कहे जा सकते। धीर पुरुष वे कहलाते हैं जो व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए उपसर्ग-परिषहों से कदापि विचलित नहीं होते। बुद्धि के गुण बुद्धि के आठ गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही श्रुतज्ञान का अधिकारी बनता है। श्रु तज्ञान आत्मा का ऐसा अनुपम धन है, जिसके सहयोग से वह संसारमुक्त होकर शाश्वत सुख को प्राप्त करता है और उसके प्रभाव में प्रात्मा चारों गतियों में भ्रमण करता हुअा जन्म-मरण आदि के दुःख भोगता रहता है। इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु को बुद्धि के आठों गुण ग्रहण करके सम्यक् श्रुत का अधिकारी बनना चाहिए / वे गुण निम्न प्रकार हैं (1) सुस्सूसइ-शुश्रूषा का अर्थ है-सुनने की इच्छा या जिज्ञासा। शिष्य अथवा साधक सर्वप्रथम विनयपूर्वक अपने गुरु के चरणों की वन्दना करके उनके मुखारविन्द से कल्याणकारी सूत्र व अर्थ सुनने को जिज्ञासा व्यक्त करे / जिज्ञासा के अभाव में ज्ञान-प्राप्ति नहीं हो सकती। (2) पडिपुच्छइ-सूत्र या अर्थ सुनने पर अगर कहीं शंका पैदा हो तो विनय सहित मधुर वचनों से गुरु के चित्त को प्रसन्न करते हुए गौतम के समान प्रश्न पूछकर अपनी शंका का निवारण करे / श्रद्धापूर्वक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने से तर्कशक्ति वृद्धि को प्राप्त होती है तथा ज्ञान निर्मल होता है। (3) सुणेइ-प्रश्न करने पर गुरुजन जो उत्तर देते हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक सुने / जब तक समाधान न हो जाय तब तक विनय सहित उनसे समाधान प्राप्त करे, उनकी बात दत्तचित्त होकर श्रवण करे किन्तु विवाद में पड़कर गुरु के मन को खिन्न न करे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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