________________ श्रुतज्ञान ] [207 115---(1) अक्षर, (2) संज्ञी, (3) सम्यक्, (4) सादि, (5) सपर्यवसित, (6) गमिक, (7) और अङ्गप्रविष्ट, ये सात और इनके सप्रतिपक्ष सात मिलकर श्रु तज्ञान के चौदह भेद हो जाते हैं। बुद्धि के जिन आठ गुणों से प्रागम शास्त्रों का अध्ययन एवं श्र तज्ञान का लाभ देखा गया है, उन्हें शास्त्रविशारद एवं धीर आचार्य कहते हैं वे आठ गुण इस प्रकार हैं-विनययुक्त शिष्य गुरु के मुखारविन्द से निकले हुए वचनों को सुनना चाहता है। जब शंका होती है तब पुन: विनम्र होकर गुरु को प्रसन्न करता हुआ पूछता है। गुरु के द्वारा कहे जाने पर सम्यक् प्रकार से श्रवण करता है, सुनकर उसके अर्थ-अभिप्राय को ग्रहण करता है। ग्रहण करने के अनन्तर पूर्वापर अविरोध से पर्यालोचन करता है, तत्पश्चात् यह ऐसे ही है जैसा गुरुजी फरमाते हैं, यह मानता है। इसके बाद निश्चित अर्थ को हृदय में सम्यक रूप से धारण करता है। फिर जैसा गरु ने प्रतिपादन किया था, उसके अनुसार आचरण करता है। आगे शास्त्रकार सुनने की विधि बताते हैं शिष्य मौन रहकर सुने, फिर हुंकार-'जी हां' ऐसा कहे / उसके बाद बाढंकार अर्थात् 'यह ऐसे ही है जैसा गुरुदेव फरमाते हैं इस प्रकार श्रद्धापूर्वक माने। तत्पश्चात् अगर शंका हो तो पूछे कि-"यह किस प्रकार है ?" फिर मीमांसा करे अर्थात् विचार-विमर्श करे। तब उत्तरोत्तर गुणप्रसंग से शिष्य पारगामी हो जाता है। तत्पश्चात् वह चिन्तन-मनन आदि के बाद गुरुवत् भाषण और शास्त्र की प्ररूपणा करे / ये गुण शास्त्र सुनने के कथन किए गए हैं / व्याख्या करने की विधि प्रथम वाचना में सूत्र और अर्थ कहे। दूसरी में सूत्रस्पशिक नियुक्ति का कथन करे / तीसरी वाचना में सर्व प्रकार नय-निक्षेप आदि से पूर्ण व्याख्या करे। इस तरह अनुयोग की विधि शास्त्रकारों ने प्रतिपादन की है। यह श्रु तज्ञान का विषय समाप्त हुआ। इस प्रकार यह अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य श्रु त का वर्णन सम्पूर्ण हुआ। यह परोक्षज्ञान का वर्णन हुआ / इस प्रकार श्रीनन्दी सूत्र भी परिसमाप्त हुआ। विवेचन-सूत्रकारों की यह शैली सदाकाल से अविच्छिन्न रही है कि जिस विषय का उन्होंने भेद-प्रभेदों सहित निरूपण किया, अन्त में उसका उपसंहार भी अवश्य किया। इस सूत्र में भी श्रु त के चौदह भेदों का स्वरूप बताने के पश्चात् अन्तिम एक ही गाथा में श्रु तज्ञान के चौदह भेदों का कथन किया है / जैसे (1) अक्षर, (2) संज्ञी, (3) सम्यक्, (4) सादि, (5) सपर्यवसित, (6) गमिक, (7) अङ्गप्रविष्ट, (8) अनक्षर, (9) असंजी, (10) मिथ्या, (11) अनादि, (12) अपर्यवसित, (13) अगमिक, और (14) अनंगप्रविष्ट / इस प्रकार सामान्य श्रुत के मूल भेद चौदह हैं, फिर भले ही वह श्रत सम्यक् ज्ञानरूप हो अथवा अज्ञानरूप (मिथ्याज्ञान) हो। श्रुत एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय छद्मस्थ जीवों तक सभी में पाया जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org