________________ भुतज्ञान] [206 (4) गिण्हइ-सूत्र, अर्थ तथा किये हुए समाधान को हृदय से ग्रहण करे, अन्यथा सुना हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाता है। (5) ईहते-हृदयंगम किये हुए ज्ञान पर पुनः पुनः चिन्तन-मनन करे, जिससे ज्ञान मन का विषय बन सके / धारणा को दढतम बनाने के लिए पर्यालोचन अावश्यक है। (6) अपोहए-प्राप्त किये हुए ज्ञान पर चिन्तन-मनन करके यह निश्चय करे कि यही यथार्थ है जो गुरु ने कहा है, यह अन्यथा नहीं है, ऐसा निर्णय करे / (7) धारेइ-निर्मल एवं निर्णीत सार-ज्ञान की धारणा करे / (8) करेइ वा सम्म-ज्ञान के दिव्य प्रकाश से ही श्र तज्ञानी चारित्र की सम्यक-आराधना कर सकता है / श्र तज्ञान का अन्तिम सुफल यही है कि श्रुतज्ञानी सन्मार्ग पर चले तथा चारित्र की आराधना करता हुआ कर्मों पर विजय प्राप्त करे / ____ बुद्धि के ये सभी गुण क्रियारूप हैं क्योंकि गुण क्रिया के द्वारा ही व्यक्त होते हैं / ऐसा इस गाथा से ध्वनित होता है। श्रवणविधि के प्रकार शिष्य अथवा जिज्ञासु जब अञ्जलिबद्ध होकर विनयपूर्वक गुरु के समक्ष सूत्र व अर्थ सुनने के लिए बैठता है तब उसे किस प्रकार सुनना चाहिए ? सूत्रकार ने उस विधि का भी गाथा में उल्लेख किया है, क्योंकि विधिपूर्वक न सुनने से ज्ञानप्राप्ति नहीं होती और सुना हुअा व्यर्थ चला जाता है / श्रवणविधि इस प्रकार है (1) मूअं-जब गुरु अथवा प्राचार्य सूत्र या अर्थ सुना रहे हों, उस समय-प्रथम श्रवण के समय शिष्य को मौन रहकर दत्तचित्त होकर सुनना चाहिए। (2) हुंकार-द्वितीय श्रवण में गुरु-वचन श्रवण करते हुए बीच-बीच में प्रसन्नतापूर्वक 'हुंकार' करते रहना चाहिए। (3) बाढंकार--सूत्र व अर्थ गुरु से सुनते हुए तृतीय श्रवण में कहना चाहिये-'गुरुदेव ! आपने जो कुछ कहा है, सत्य है' अथवा 'तहत्ति' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। (4) पडिपुच्छइ–चौथे श्रवण में जहाँ कहीं सूत्र या अर्थ समझ में न आए अथवा सुनने से रह जाय तो बीच-बीच में आवश्यकतानुसार पूछ लेना चाहिए, किन्तु निरर्थक तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए। (5) मीमांसा-पंचम श्रवण के समय शिष्य के लिए आवश्यक है कि गुरु-वचनों के आशय को समझते हुए उसके लिए प्रमाण की जिज्ञासा करे / (6) प्रसंगपारायण-छठे श्रवण में शिष्य सुने हुए श्रुत का पारगामी बन जाता है और उसे उत्तरोत्तर गुणों की प्राप्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org