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________________ श्रु तज्ञान] [183 वह अंग की अपेक्षा से सातवाँ अंग है / उसमें एक शु तस्कंध, दस अध्ययन, दस उद्देशनकाल और दस समुद्दशनकाल हैं। पद-परिमाण से संख्यात-सहस्र पद हैं। संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन प्रतिपादित भावों का सामान्य और विशेष रूप से कथन, प्ररूपण, प्रदर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है। इसका सम्यकरूपेण अध्ययन करने वाला तद्रूप-यात्म ज्ञाता और विज्ञाता बन जाता है। उपासकदशांग में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है। यह उपासकदशा श्रु त का विषय है / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में उपासकों की चर्या का वर्णन है, इसलिए इसका नाम 'उपासकदशा' दिया गया है / श्रमण भगवान् महावीर के दस विशिष्ट श्रावकों का इसमें वर्णन है, इसलिए भी यह उपासकदशाङ्ग कहलाता है। श्रमणों की, यानी साधुओं की सेवा करने वाले श्रमणोपासक कहे जाते हैं। सत्र में दस अध्ययन हैं तथा प्रत्येक अध्ययन में एक-एक धावक के लौकिक और लोकोत्तर वभव का वर्णन है / इसमे उपासको के अणुव्रत और शिक्षाव्रतों का स्वरूप भी बताया गया है। प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि भगवान महावीर के तो एक लाख और उनसठ हजार, बारहव्रतधारी श्रावक थे। फिर केवल दस श्रावकों का ही वर्णन क्यों किया गया? प्रश्न उचित और विचारणीय है। इसका उत्तर यह है कि सूत्रकारों ने जिन श्रावकों के लौकिक और लोकोत्तरिक जीवन में समानता देखी, उनका हो उल्लेख इसमें किया गया है / जैसे. उपासकदशाङ्ग में वर्णित दसों श्रावक कोटयधीश थे, राजा और प्रजा के प्रिय थे। सभी के पास पाँचसौ हल की जमीन और गोजाति के अलावा कोई भी अन्य पशु नहीं थे। उनके व्यापार में जितने करोड़ द्रव्य लगा हुआ था, उतने ही गायों के व्रज थे / दसों श्रावकों ने महावीर भगवान् के प्रथम उपदेश से ही प्रभावित होकर बारह व्रत धारण किए थे तथा पन्द्रहवें वर्ष में गृहस्थ के व्यापारों से अलग होकर पौषधशाला में रहकर धर्माराधना की थी और पन्द्रहवें वर्ष के कुछ मास बीतने पर ग्यारह प्रतिमाएँ धारणकर उनकी आराधना प्रारम्भ कर दो थो / यहाँ पाठकों को स्मरण रखना चाहिए कि उनकी आयु लौकिक व्यवहार में व्यतीत हुई, उसकी गणना नहीं की गई है अपितु जबसे उन्होंने बारह व्रत धारण किए, तभी से आयु का उल्लेख किया गया है। सूत्र में वर्णित सभी श्रावकों ने एक-एक महीने का संथारा किया, सभी प्रथम देवलोक में देव हुए तथा चार पल्योपम की स्थिति प्राप्त की और आगे महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध-पद प्राप्त करेंगे। इस प्रकार लगभग सभी दृष्टियों से उनका जीवन समान था और इसीलिए उन्हीं दस का उपासकदशांग में वर्णन किया गया है। अन्य उपासकों में इतनी समानता न होने से सम्भवतः उनका उल्लेख नहीं है / सूत्र का शेष परिचय भावार्थ में दिया जा चुका है / (8) श्री अन्तकृद्दशाङ्ग सूत्र ६०-से कि तं अंतगडदसायो ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराई, उज्जाणाई, चेइमाइं, वणसंडाई समोसरणाई, रायाणो, अम्मा-पियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाश्रो, इहलोइअ-परलोइआ इढिविसेसा, मोगपरिच्चाया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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