________________ 184] [नन्दीसूत्र पवज्जानो, परिआगा, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाई संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पापोवगमणाई अंतकिरियानो प्रायविज्जति / ___ अंतगडदसासु णं परित्ता बायणा, संखिज्जा अणुप्रोगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जायो निज्जुत्तीरो, संखेज्जाओ संगहणीसो, संखेज्जाम्रो पडिवत्तीप्रो। से गं अंगठ्ठयाए अट्ठमे अगे, एगे सुअक्खंधे अट्ठ वग्गा, अट्ठ उद्दे सणकाला, अट्ठ समुद्दे सणकाला संखेज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइआ जिणपण्णत्ता भावा प्राविज्जति, पन्नविज्जति. परूविज्जति. दंसिज्जंति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जति / से एवं आया, एवं नाया, एवं विन्नाया, एवं चरण करणपरूवणा प्राविज्जइ। से तं अंतगडदसायो। / सूत्र 53 // ९०-प्रश्न-अन्तकृद्दशा-श्रुत किस प्रकार का है--उसमें क्या विषय वणित है ? ___ उत्तर-अन्तकृद्दशा में अन्तकृत अर्थात् कर्म का अथवा जन्म-मरणरूप संसार का अन्त करनेवाले महापुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इस लोक और परलोक की ऋद्धि विशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या (दीक्षा) और दीक्षापर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधानतप, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अन्तक्रिया-शैलेशी अवस्था आदि विषयों का वर्णन है। अन्तकृद्दशा में परिमित वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं / ___ अङ्गार्थ से यह पाठवाँ अंग है / इसमें एक श्रुतस्कंध, पाठ उद्देशनकाल और पाठ समुद्देशन काल हैं / पद परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं / संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय तथा परिमित बस और अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन प्रज्ञप्त भाव कहे गए हैं तथा प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किए जाते हैं / इस सूत्र का अध्ययन करनेवाला तदात्मरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है / इस तरह प्रस्तुत अङ्ग में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है। यह अंतकृदशा का स्वरूप है। विवेचन-सूत्र के नामानुसार अंतकृद्-दशा से यह अभिप्राय है कि जिन साधु-साध्वियों ने संयम-साधना और तपाराधना करके जीवन के अंतिम क्षण में कर्मों का सम्पूर्ण रूप से क्षय कर कैवल्य होते ही निर्वाण पद प्राप्त कर लिया, उनके जीवन का वर्णन इसमें दिया गया है / अन्तकृत् केवली भी उन्हें हो कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में आठ वर्ग हैं, प्रथम और अन्तिम वर्ग में दस-दस अध्ययन हैं, इसी दृष्टि से अन्तकृत् के साथ दशा शब्द का प्रयोग किया गया है। इसमें भगवान् अरिष्टनेमि और महावीरस्वामी के शासनकाल में होने वाले अन्तकृत् केवलियों का ही वर्णन है। अरिष्टनेमि के समय में जिन नर-नारियों ने, यादववंशीय राजकुमारों और श्रीकृष्ण की रानियों ने कर्म-मुक्त होकर निर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org