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________________ श्र तज्ञान] [163 मण्डलप्रवेश—सूर्य के एक मंडल से दूसरे मंडल में प्रवेश करने का विवरण इसमें दिया गया है। विद्या-चरण-विनिश्चय-इसमें विद्या और चारित्र का प्रतिपादन किया गया है। गणिविद्या-गच्छ व गण के नायक गणो के क्या-क्या कर्तव्य हैं, तथा उसके लिए कौन-कौन सी विद्याएँ अधिक उपयोगी हैं ? उन सबके नाम तथा उनको पाराधना का वर्णन किया गया है। ध्यानविभक्ति-इसमें आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल, इन चारों ध्यानों का विवरण है / मरणविभक्ति-इसमें अकाममरण, सकाममरण, बालमरण और पण्डित मरण आदि के विषय में बतलाते हुए कहा है कि किस प्रकार मृत्युकाल में समभावपूर्वक उत्तम परिणामों के साथ निडरतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करना चाहिए / आत्मविशोधि-इस सूत्र में आत्म-विशुद्धि के विषय में विस्तारपूर्वक बताया गया है। वीतरागथ त-इसमें वीतराग का स्वरूप बताया गया है। संलेखनाथ त-इसमें, द्रव्य संलेखना, जिसमें अशन आदि अाहारों का त्याग किया जाता है और भावसंलेखना, जिसमें कषायों का परित्याग किया जाता है, इसका विवरण है / विहारकल्प–इसमें स्थविरकल्प का विस्तृत वर्णन है / चरणविधि—इसमें चारित्र के भेद-प्रभेदों का उल्लेख किया गया है। अातुरप्रत्याख्यान-रुग्णावस्था में प्रत्याख्यान आदि करने का विधान है। महाप्रत्याख्यान-इस सूत्र में जिनकल्प, स्थविरकल्प तथा एकाको विहारकल्प में प्रत्याख्यान का विधान है। ___ इस प्रकार उत्कालिक सूत्रों में उनके नाम के अनुसार वर्णन है / किन्हीं का पदार्थ एवं मूलार्थ में भाव बताया गया है तथा किन्हों की व्याख्या पूर्व में दी जा चुकी है। इनमें से कतिपय सूत्र प्रब उपलब्ध नहीं हैं किन्तु जो श्र त द्वादशाङ्ग गणिपिटक के अनुसार है, वह पूर्णतया प्रामाणिक है / जो स्वमतिकल्पना से प्रणीत और पागमों से विपरीत है, वह प्रमाण की कोटि में नहीं आता / ८१-से कि तं कालियं ? कालियं प्रणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा--- (1) उत्तरज्झयणाइं (2) दसानो (3) कप्पो (4) ववहारो (5) निसीहं (6) महानिसीहं (7) इसिभासिप्राइं (8) जंबूदीवपन्नती (6) दीवसागरपन्नत्तो (10) चंदपन्नत्ती (11) खुड्डिाविमाणविभत्ती (12) महल्लिप्राविमाणविभत्ती (13) अंगचूलिया (14) वग्गचूलिया (15) विवाहचूलिया (17) अरुणोववाए (17) वरुणोववाए (18) गरुलोववाए (16) धरणोववाए (20) वेसमणोववाए (21) वेलंधरोववाए (22) देविदोववाए (23) उट्ठाणसुए (24) समुट्ठाणसुए (25) नागपरिमावणिप्रानो (26) निरयावलियानो (27) कप्पिसायो (28) कप्पडिसियाओ (26) पुल्फिानो (30) पुप्फचूलिपायो (31) वण्हीदसायो, एवमाइयाई, चउरासीई पइन्नगसहस्साई भगवश्रो अरहो उसहसामिस्स प्राइतित्थयरस्स, तहा संखिज्जाइं पइन्नगसहस्साई मज्झिमगाणं जिणवराणं, चोइसपइन्नगसहस्साणि भगवना बद्धमाणसामिस्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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