________________ श्रुतज्ञान] [161 ___विवेचन-उक्त सूत्र में गमिक-श्रुत, अगमिक-श्रुत, अङ्गप्रविष्ट-श्रुत और अङ्गवाह्य-श्रुत का वर्णन किया गया है। गमिकथ त—जिस श्रु त के आदि, मध्य और अन्त में थोड़ी विशेषता के साथ पुनः पुन: उन्हीं शब्दों का उच्चारण होता हो / जैसे-उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन में "समयं गोयम ! मा पमायए' यह प्रत्येक गाथा के चौथे चरण में दिया गया है। चर्णिकार ने भी गमिक-श्रु त के विषय में कहा है"पाई मज्झेऽवसाणे वा किंचिविसेसजुत्तं, दुगाइसयग्गसो तमेव, पढिज्जमाणं गमियं भण्णइ / " अगमिक श्रत-जिसमें पाठों की समानता न हो अर्थात्—जिस ग्रन्थ अथवा शास्त्र में पुनः पुनः एक सरीखे पाठ न आते हों वह अगमिक कहलाता है। दृष्टिवाद गमिक श्रु त है तथा कालिक श्रु त सभी अगमिक हैं। ___ मुख्यतया श्रु तज्ञान के दो भेद किए जाते हैं-अङ्गप्रविष्ट (बारह अंगों के अन्तर्गत) और अङ्गबाह्य / आचारांग सूत्र से लेकर दृष्टिवाद तक सब अङ्गप्रविष्ट कहलाते हैं और इनके अतिरिक्त सभी अङ्गबाह्य / वृत्तिकार ने अङ्गों को इस प्रकार बताया है "इह पुरुषस्य द्वादशाङ्गानि भवन्ति, तद्यथा-द्वौ पादौ, द्वे जङ्घ, द्वे उरूणी, द्वे गात्राद्ध, द्वौ बाहू, ग्रीवा शिरश्च, एवं श्रु तरूपस्यापि परमपुरुषस्याऽऽचारादीनि द्वादशाङ्गानि क्रमेण वेदितव्यानि / " / अर्थात्-जिस प्रकार सर्वलक्षण युक्त पुरुष के दो पैर, दो जंघाएँ, दो उरू, दो पार्श्व, दो भुजाएँ गर्दन और सिर, इस प्रकार बारह अंग होते हैं, वैसे ही परमपुरुष श्रुत के भी बारह अंग हैं। तीर्थंकरों के उपदेशानुसार जिन शास्त्रों की रचना गणधर स्वयं करते हैं, वे अंगसूत्र कहलाते हैं और अंगों का आधार लेकर जिनकी रचना स्थविर करते हैं, वे शास्त्र अंगबाह्य कहे जाते हैं / अंगबाह्य सूत्र दो प्रकार के होते हैं—आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त / आवश्यक सूत्र में अवश्यमेव करने योग्य क्रियाओं का वर्णन है। इसके छह अध्ययन हैं, सामायिक, जिनस्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान / इन छहों में समस्त करणीय क्रियाओं का समावेश हो जाता है। इसीलिये अंगबाह्य सूत्रों में प्रथम स्थान आवश्यक सूत्र को दिया गया है। उसके बाद अन्य सूत्रों का नम्बर प्राता है / इसके महत्त्व का दूसरा कारण यह है कि चौतीस अस्वाध्यायों में आवश्यक सूत्र का कोई अस्वाध्याय नहीं है। तीसरा कारण इसका विधिपूर्वक अध्ययन दोनों कालों में करना आवश्यक है। इन्हीं कारणों से यह अंगबाह्य सूत्रों में प्रथम माना गया है / ८०-से कि तं श्रावस्सय-वइरित्तं ? प्रावस्सयवइरित्तं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिग्रं च उक्कालियं च / से कि तं उक्कालिअं? उक्कालिअं अणेगविहं पण्णतं, तं जहा-(१) दसवेप्रालिअं (2) कप्पियाकप्पिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org