SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 160] [नन्दौसूत्र चौथा भंग अनादि-अनन्त है। प्रभव्यसिद्धिक का मिथ्याश्रु त अनादि-अनन्त होता है, क्योंकि उसको सम्यक्त्व की प्राप्ति कभी नहीं होती। पर्यायाक्षर लोकाकाश और अलोकाकाश रूप सर्व प्राकाश प्रदेशों को सर्व प्रकाश प्रदेशों से एक, दो संख्यात या असंख्यात बार नहीं, अनन्त बार गुणित करने पर भी प्रत्येक आकाश प्रदेश में जो अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं, उन सबको मिलाकर पर्यायाक्षर निष्पन्न होता है / धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेश स्तोक होने से सूत्रकार ने उन्हें ग्रहण नहीं किया है किन्तु उपलक्षण से उनका भी ग्रहण करना चाहिए / अक्षर दो प्रकार के हैं-ज्ञान रूप और प्रकार प्रादि वर्ण रूप, यहाँ दोनों का ही ग्रहण करना चाहिए / अनंत पर्याययुक्त होने से अक्षर शब्द से केवलज्ञान ग्रहण किया जाता है। लोक में जितने रूपी द्रव्य हैं, उनकी गुरुलधु और अरूपी द्रव्यों की अगुरुलघु पर्याय हैं / उन सभी को केवलज्ञानी हस्तामलकवत् जानते व देखते हैं / सारांश यह कि सर्वद्रव्य, सर्वपर्याय-परिमाण केवलज्ञान उत्पन्न होता है। गमिक-अगमिक, अङ्गप्रविष्ट-प्रङ्गाबाह्य ७६-से किं तं गमिनं ? गमिनं दिट्टिवायो। से किं तं अगमित्रं ? अगमिनं-कालिप्रसुप्रं / से त्तं गमिअं, से तं अगमि।। अहवा तं समासम्रो दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंगपविट्ठ, अंगबाहिरं च / से कि तं अंगबाहिरं ? अंगबाहिरं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा--प्रावस्सयं च प्रावस्सयवहरित्तं च / (1) से कि तं प्रावस्सयं ? प्रावस्सयं छविहं पण्णत्तं, तं जहा-(१) सामाइयं (2) चउवोसत्थवो (3) वंदणयं (4) पडिक्कमणं (5) काउस्सग्गो (6) पच्चक्खाणं / से तं प्रावस्सयं / ७६-गमिक-श्रु त क्या है ? आदि, मध्य या अवसान में कुछ शब्द-भेद के साथ उसी सूत्र को बार-बार कहना गमिक-श्रु त है / दृष्टिवाद गमिक-श्र त है। अगमिक-श्रत क्या है ? गमिक से भिन्न प्राचाराङ्ग आदि कालिकवत अगमिक-श्रुत हैं / इस प्रकार गमिक और अगमिकथु त का स्वरूप है। अथवा श्रु त संक्षेप में दो प्रकार का कहा गया है अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य। अङ्गबाह्य-श्रु त कितने प्रकार का है ? अङ्गबाह्य दो प्रकार का है-(१) प्रावश्यक (2) अावश्यक से भिन्न / आवश्यक-श्रु त क्या है ? अावश्यक-श्रु त छह प्रकार का है--(१)सामायिक (२)चतुर्विशतिस्तव (3) वंदना (4) प्रतिक्रमण (5) कायोत्सर्ग (6) प्रत्याख्यान / यह आवश्यक-श्रु त का वर्णन है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy