________________ भु तज्ञान] [159 द्रव्यतः-एक जीव की अपेक्षा से सम्यकश्र त सादि-सान्त है। जब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तब सम्यक्च त की आदि और जब वह पहले या तीसरे गुणस्थान में प्रवेश करता है तब पुनः मिथ्यात्व का उदय होते ही सम्यक् त भी लुप्त हो जाता है। प्रमाद, मनोमालिन्य, तीव्रवेदना अथवा विस्मृति के कारण, या केवल ज्ञान उत्पन्न होने के कारण प्राप्त किया हुअा श्र तज्ञान लुप्त होता है तब वह उस पुरुष की अपेक्षा से सान्त कहलाता है। किन्तु तीनों कालों की अपेक्षा से अथवा बहुत पुरुषों की अपेक्षा से सम्यक्श्रु त अनादि-अनन्त है, क्योंकि ऐसा एक भी समय न कभी हुआ है, न है और न होगा ही जब सम्यक्च त वाले ज्ञानी जीव विद्यमान न हों। सम्यक् त का सम्यकदर्शन से अविनाभावी संबंध है, अत: और बहुत पुरुषों की अपेक्षा से सम्यक्थु त (द्वादशाङ्ग वाणी) अनादि अनन्त है। क्षेत्रत:-पाँच भरत और पाँच ऐरावत, इन दस क्षेत्रों की अपेक्षा से गणिपिटक सादि-सान्त है, क्योंकि अवसर्पिणीकाल के सुषमदुषम आरा के अन्त में और उत्सर्पिणीकाल में दुःषमसुषम के प्रारम्भ में तीर्थंकर भगवान् सर्वप्रथम धर्मसंघ की स्थापना के लिये द्वादशाङ्ग गणिपिटक की प्ररूपणा करते हैं / उसी समय सम्यक्च त का प्रारम्भ होता है / इस अपेक्षा से वह सादि तथा दुःषमदुःषम बारे में सम्यक् त का व्यवच्छेद हो जाता है, इस अपेक्षा से सम्यक्श्रु त गणिपिटक सान्त है / किन्तु पाँच महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा गणिपिटक अनादि-अनन्त है, क्योंकि महाविदेह क्षेत्र में उसका सदा सद्भाव रहता है। कालत:-जहाँ उत्सर्पिणी एवं अवपिणी काल वर्तते हैं, वहाँ सम्यक्च त सादि-सान्त है, क्योंकि धर्म की प्रवृत्ति कालचक्र के अनुसार होती है / पाँच महाविदेह क्षेत्र में न उत्सर्पिणी काल है और न अवसपिणी / इस प्रकार वहां कालचक्र का परिवर्तन न होने से सम्यक्श्रु त सदैव अवस्थित रहता है, अतः वह अनादि-अनन्त है। भावतः-जिस तीर्थकर ने जो भाव प्ररूपित किए हैं, उनकी अपेक्षा सम्यक्च त सादि-सान्त है किन्तु क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है / यहाँ पर चार भंग होते हैं :-(1) सादिसान्त (2) सादि-अनन्त (3) अनादि-सान्त और (4) अनादि-अनन्त / पहला भंग भव-सिद्धिक में पाया जाता है, कारण कि सम्यक्त्व होने पर अंग सूत्रों का अध्ययन किया जाता है, वह सादि हुमा / मिथ्यात्व के उदय से या क्षायिक ज्ञान हो जाने से वह सम्यक्च त उसमें नहीं रहता, इस दृष्टि से सान्त कहलाता है। क्योंकि सम्यक् त क्षायोपशमिक . ज्ञान है और सभी क्षायोपशमिक ज्ञान सान्त होते हैं, अनन्त नहीं। दूसरा भंग शून्य है, क्योंकि सम्यकश्रु त तथा मिथ्याश्रु त सादि होकर अनन्त नहीं होता। मिथ्यात्व का उदय होने पर सम्यक् त नहीं रहता और सम्यक्त्व प्राप्त होने पर मिथ्याश्रु त नहीं रह सकता / केवलज्ञान होने पर दोनों का विलय हो जाता है। तीसरा भंग भव्यजीव की अपेक्षा से समझना चाहिये क्योंकि भव्यसिद्धिक मिथ्यादष्टि का मिथ्याशु त अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु उसके सम्यक्त्व प्राप्त करते ही मिथ्याश्रत का अन्त हो जाता है, इसलिए अनादि-सान्त कहा गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org