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________________ 158] [नन्दीसूत्र 'सुठुवि मेहसमुदए होइ पभा चंदसूराणं / ' से तं साइअं सपज्जवसिग्रं, से तं प्रणाइयं अपज्जवसि। // सूत्र 43 / / ७८-प्रश्न-सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसितश्रु त का क्या स्वरूप है ? उत्तर--यह द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से सादि-सान्त है, और द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से आदि अन्त रहित है। यह श्र तज्ञान संक्षेप में चार प्रकार से वर्णित किया गया है, जैसे-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / (1) द्रव्य से सम्यकश्र त, एक पुरुष की अपेक्षा से सादि-सपर्यवसित अर्थात् सादि और सान्त है। बहुत से पुरुषों की अपेक्षा से अनादि अपर्यवसित अर्थात् आदि और अन्त से रहित है। (2) क्षेत्र से सम्यक्च त पांच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों की अपेक्षा से सादि-सान्त है। पाँच महाविदेह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है / (3) काल से सम्यक्च त उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से सादि-सान्त है। नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी अर्थात् अवस्थित काल की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है / (4) भाव से सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिन-तीर्थकरों द्वारा जो भाव-पदार्थ जिस समय सामान्यरूप से कहे जाते हैं, जो नाम आदि भेद दिखलाने के लिए विशेष रूप से कथन किये जाते हैं, हेतु-दृष्टान्त के उपदर्शन से जो स्पष्टतर किये जाते हैं और उपनय तथा निगमन से जो स्थापित किये जाते हैं, तब उन भावों की अपेक्षा से सादि-सान्त है। क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से सम्यक्-श्रु त अनादिअनन्त है। अथवा भवसिद्धिक (भव्य) प्राणी का श्रु त सादि-सान्त है, अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव का मिथ्या-श्रु त अनादि और अनन्त है। सम्पूर्ण प्राकाश-प्रदेशों का समस्त प्रकाश प्रदेशों के साथ अनन्त बार गुणाकार करने से पर्याय अक्षर निष्पन्न होता है / सभी जीवों के अक्षर-श्रु तज्ञान का अनन्तवाँ भाग सदैव उद्घाटित (निरावरण) रहता है। यदि वह भी प्रावरण को प्राप्त हो जाए तो उससे जीवात्मा अजोवभाव को प्राप्त हो जाए। क्योंकि चेतना जीव का लक्षण है। बादलों का अत्यधिक पटल ऊपर आ जाने पर भी चन्द्र पौर सूर्य की कुछ न कुछ प्रभा तो रहती ही है। इस प्रकार सादि-सान्त और अनादि-अनन्त थ त का वर्णन है / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सादि-श्रत, सान्त-श्रु त, अनादि-श्रुत और अनन्त-श्रु त का वर्णन है। सूत्रकार ने—'सा इयं सपज्जवसियं, अणाइयं अपज्जवसियं" ये पद दिये हैं / सपर्यवसित सान्त को कहते हैं और अपर्यवसित अनन्त का द्योतक है / यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं, किन्तु अव्युच्छित्तिनय को अपेक्षा से अनादि-अनन्त है। इसका कारण यह है कि व्यवच्छित्तिनय पर्यायास्तिक का ही दूसरा नाम है, और अव्यच्छित्तिनय द्रव्याथिक नय का पर्यायवाची नाम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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