________________ श्रतज्ञान] [155 __ उत्तर है-हो सकते हैं / सम्पूर्ण दस पूर्वधर से लेकर चौदह पूर्वो तक के धारक जितने भी ज्ञानी हैं उनका कथन नियम से सम्यक्थु त ही होता है / किंचित् न्यून दस पूर्व में सम्यक्च त की भजना है, अर्थात् उनका श्रु त सम्यक्च त भी हो सकता है और मिथ्याश्रु त भी। मिथ्यादृष्टि जीव भी पूर्वो का अध्ययन कर सकते हैं, किन्तु वे अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्वो का ही अध्ययन कर सकते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही होता है। सारांश यह है कि चौदह पूर्व से लेकर परिपूर्ण दस पूर्वो के ज्ञानी निश्चय ही सम्यकदृष्टि होते हैं / अत: उनका श्रु त सम्यक् त ही होता है / वे प्राप्त ही हैं। शेष अङ्गधरों या पूर्वधरों में सम्यक्च त नियमेन नहीं होता / सम्यक्दृष्टि का प्रवचन ही सम्यक्त्र त हो सकता है / मिथ्याश्रुत ७७–से कि तं मिच्छासुअं? मिच्छासुअं, जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठिएहि, सच्छंदबुद्धि-मइविगप्पिअं, तं जहा --- (1) भारहं (2) रामायणं (3) भीमासुरक्खं (4) कोडिल्लयं (5) सगडमद्दिपायो (6) खोडग (घोडग) मुहं (7) कप्पासि (8) नागसुहमं (6) कणगसत्तरी (10) वइसे सिधे (11) बुद्धवयणं (12) तेरासि (13) काविलिअं (14) लोगाययं (15) सद्वितंतं (16) माढरं (17) पुराणं (18) वागरणं (16) भागवं (20) पायंजली (21) पुस्सदेवयं (22) लेहं (23) गणिों (24) सउणिरुअं (25) नाडयाई। अहवा बावत्तरि कलामो, चत्तारि अवेया संगोवंगा, एआई मिच्छदिद्विस्स मिच्छत्तपरिग्गहिप्राई मिच्छा-सुअं एयाई चेवं सम्मदिद्धिस्स सम्मतपरिग्गहिपाई सम्मसुअं। अहवा मिच्छादिहिस्सवि एयाई चेव सम्मसुग्रं, कम्हा ? सम्मत्तहेउत्तणो, जम्हा ते मिच्छदिट्टिमा तेहिं चेव समरहि चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठीनो चति / से तं मिच्छा -सुझं। ॥सूत्र 42 / / ७७-मिथ्याश्रु त का स्वरूप क्या है ? मिथ्याश्रु त अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टियों द्वारा स्वच्छंद और विपरीत बुद्धि द्वारा कल्पित किये हुए ग्रन्थ हैं, यथा (1) भारत (2) रामायण (3) भीमासुरोक्त (4) कौटिल्य (2) शकट भद्रिका (6) घोटकमुख (7) कासिक (8) नाग-सूक्ष्म (9) कनकसप्तति (10) वैशेषिक (11) बुद्धवचन (12) त्रैराशिक (13) कापिलोय (14) लोकायत (15) षष्टितंत्र (16) माठर (17) पुराण (18) व्याकरण (16) भागवत (20) पातञ्जलि (21) पुष्यदैवत (22) लेख (23) गणित (24) शकुनिरुत (25) नाटक / अथवा बहत्तर कलाएं और चार वेद अंगोपाङ्ग सहित / ये सभी मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्यारूप में ग्रहण किये हुए मिथ्याश्र त हैं / यही ग्रन्थ सम्यक दृष्टि द्वारा सम्यक् रूप में ग्रहण किए हुए सम्यक्-श्रु त हैं। अथवा मिथ्यादृष्टि के लिए भी यही ग्रन्थ-शास्त्र सम्यक्च त हैं, क्योंकि ये उनके सम्यक्त्व में हेतु हो सकते हैं, कई मिथ्यादृष्टि इन ग्रन्थों से प्रेरित होकर अपने मिथ्यात्व को त्याग देते हैं। यह मिथ्याश्र त का स्वरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org