________________ 156] [नन्दीसूत्र विवेचन---प्रस्तुत सूत्र में मिथ्याश्रु त के विषय में बताया गया है कि अज्ञानी, विपरीत बुद्धिवाले एवं स्वच्छंद मतिवाले व्यक्ति अपनी कल्पना से जो विचार लोगों के सामने रखते हैं वे विचार तात्त्विक न होने से मिथ्याश्रु त कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, जिनकी दृष्टि या विचार-धारा मिथ्या है, उन्हें मिथ्यादष्टि कहते हैं / मिथ्यात्व दस प्रकार का होता है, किन्तु ध्यान में रखने का बात है कि यदि किसी प्राणी में एक प्रकार का भी मिथ्यात्व हो तो उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना चाहिए। मिथ्यात्व के प्रकार इस तरह हैं (1) अधम्मे धम्मसण्णा- अर्थात् अधर्म को धर्म मानना / जसे—विभिन्न देवी-देवतानों के, ईश्वर के तथा पितर आदि के नाम पर हिंसा आदि पाप-कृत्य करना और उसमें धर्म मानना / (2) धम्मे अघम्मसग्णा–प्रात्म-शुद्धि के मुख्य कारण अहिंसा, संयम, तप तथा ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म को अधर्म मानना मिथ्यात्व है। (3) उम्मग्गे मग्गसण्णा-उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना, अर्थात् संसार-भ्रमण कराने वाले दुखद मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझना मिथ्यात्व है। (4) मग्गे उम्मग्गसण्णा—“सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस उत्तम मोक्षमार्ग को संसार का मार्ग समझना मिथ्यात्व है। (5) अजीबेसु जीवसण्णा-अजीवों को जीव मानना / संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है, वह सब जीव ही है, संसार में अजीव पदार्थ हैं ही नहीं, यह मान्यता रखना मिथ्यात्व है। (6) जीवेसु अजीवसण्णा—जीवों में अजीव की संज्ञा रखना / चार्वाक मत के अनुयायी शरीर से भिन्न प्रात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते / कुछ विचारक पशुओं में भी प्रात्मा होने से इंकार करते हैं, उनमें केवल प्राण मानते हैं, और इसी कारण उन्हें मारकर खाने में भी पाप नहीं समझते / यह मिथ्यात्व है। (7) असाहुसु साहुसण्णा–प्रसाधु को साधु मानना / जो व्यक्ति धन-वैभव, स्त्री-पुत्र, जमीन या मकान आदि किसी के भी त्यागी नहीं हैं। ऐसे मात्र वेषधारी को साधु मानना मिथ्यात्व है। (8) साहुसु असाहुसण्णा-श्रेष्ठ, संयत, पांच महाव्रत एवं समिति तथा गुप्ति के धारक मुनियों को असाधु समझते हुए उन्हें ढोंगी, पाखण्डी मानना मिथ्यात्व है / (9) अमुत्तेसु मुत्तसण्णा---अमुक्तों को मुक्त मानना। जिन जीवों ने कर्म-बंधनों से मुक्त होकर भगवत्पद प्राप्त नहीं किया है, उन्हें कर्म-बंधनों से रहित और मुक्त मानना मिथ्यात्व है / (10) मुत्तेसु अमुत्तसण्णा-अात्मा कभी परमात्मा नहीं बनता, कोई जीव सर्वज्ञ नहीं हो सकता तथा आत्मा न कभी कर्म-बन्धनों से मुक्त हुआ है और न कभी होगा। ऐसी मान्यता रखते हुए जो प्रात्माएँ कर्म-बन्धनों से मुक्त हो चुकी हैं, उन्हें भी अमुक्त मानना मिथ्यात्व है / अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार असली हीरे को नकली और नकली कांच के टुकड़ों को हीरा समझने वाला जौहरी नहीं कहलाता, इसी प्रकार असत् को सत् तथा सत् को असत् समझने वाला सम्यक्दृष्टि नहीं कहलाता / वह मिथ्यादृष्टि होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org