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________________ 154] [नन्दीसूत्र करता है / कुछ लोग ईश्वर को अनादि सर्वज्ञ मानते हैं, उनके मत का निषेध करने के लिये भी यह विशेषण दिया गया है / क्योंकि वह 'उत्पन्न हो गया है ज्ञान-दर्शन जिसमें' यह विशेषण उसमें नहीं पाया जाता है। (4) तेलुक्कनिरिक्खियमहियपूइएहिं जो त्रिलोकवासी असुरेन्द्रों, नरेन्द्रों और देवेन्द्रों के द्वारा प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति से अवलोकित हैं, असाधारण गुणों के कारण प्रशंसित हैं तथा मन, वचन एवं कर्म की शुद्धता से वंदनीय और नमस्करणीय हैं, सर्वोत्कृष्ट सम्मान एवं बहुमान आदि से पूजित हैं। (5) तीयपडुप्पण्णमणागयजाणएहि-जो तीनों कालों के ज्ञाता हैं / यह विशेषण मायावियों में तो नहीं पाया जाता, किन्तु कुछ व्यवहारनय की मान्यता वालों का कथन है : "ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः / तपसैव प्रपश्यन्ति, त्रैलोक्यं सचराचरम् / / " अर्थात--विशिष्ट ज्योतिषी, तपस्वी और दिव्यज्ञानी भी तीन कालों को उपयोगपूर्वक जान सकते हैं / इसलिये सूत्रकार ने छठा विशेषण बताते हुए कहा है : (6) सव्वण्ण हि--जो सर्वज्ञानी अर्थात् लोक अलोक अादि समस्त के ज्ञाता हैं, जो विश्व में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को हस्तामलकवत् जानते हैं, जिनके ज्ञानरूपी दर्पण में सभी द्रव्य और पर्याय युगपत् प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, जिनका ज्ञान निःसीम है, उनके लिए यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है। (7) सव्वदरिसीहिं—जो सभी द्रव्यों और उनकी पर्यायों का साक्षात्कार करते हैं। जो इन सात विशेषणों से सम्पन्न होते हैं, वस्तुतः वे ही सर्वोत्तम प्राप्त होते हैं। वे ही द्वादशाङ्ग गणिपिटक के प्रणेता और सम्यक्च त के रचयिता होते हैं। उक्त सातों विशेषण तेरहवं गुणस्थानवी तीर्थंकर देवों के हैं, न कि अन्य पुरुषों के। गणिपिटक--पिटक पेटी या सन्दूक को कहते हैं। जैसे राजा-महाराजाओं तथा धनाढय श्रीमन्तों के यहाँ पेटियों अथवा सन्दकों में हीरे. पन्ने, मणि, माणिक एवं विभिन्न प्रकार के रस्तादि भरे रहते हैं, इसी प्रकार गणाधीश आचार्य के यहाँ आत्मकल्याण के हेतु विविध प्रकार की शिक्षाएँ, नव-तत्त्वनिरूपण, द्रव्यों का विवेचन, धर्म की व्याख्या, आत्मवाद, क्रियावाद, कर्मवाद, लोकवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, पंचमहाव्रत, तीर्थकर बनने के उपाय, सिद्ध भगवन्तों का निरूपण, तप का विवेचन, कर्मग्रन्थि भेदन के उपाय, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव के इतिहास तथा रत्नत्रय आदि का विश्लेषण प्रादि अनेक विषयों का जिनमें यथार्थ निरूपण किया गया है, ऐसी भगवद्वाणी को गणधरों ने बारह पिटकों में भर दिया है / जिस पिटक का जैसा नाम है, उसमें वैसे ही सम्यक्च तरत्न निहित हैं / पिटकों के नाम द्वादशाङ्गरूप में ऊपर बताए गए हैं / अब प्रश्न होता है कि अरिहन्त भगवन्तों के अतिरिक्त जो अन्य श्रु तज्ञानी हैं, वे भी क्या प्राप्त पुरुष हो सकते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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