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________________ श्र तज्ञान] [153 विवेचन--इस सूत्र में सम्यकश्र त का वर्णन किया गया है / सम्यक्थु त के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते हैं / जैसे (1) सम्यक्च त के प्रणेता कौन हो सकते हैं ? (2) सम्यक्त किसको कहते हैं ? (3) गणिपिटक का क्या अर्थ है ? तथा (4) प्राप्त किसे कहते हैं ? इन सबका उत्तर विवेचन सहित क्रमश: दिया जाएगा। सम्यक् त के प्रणेता देवाधिदेव अरिहन्त प्रभु हैं। अरिहन्त शब्द गुण का वाचक है, व्यक्तिवाचक नहीं। नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप यहाँ अभिप्रेत नहीं है / अर्थात् यदि किसी का नाम अरिहन्त है तो उसका यहाँ प्रयोजन नहीं है, अरिहन्त के चित्र या प्रतिमा प्रादि स्थापना निक्षेप का भी नहीं, और भविष्य में अरिहन्त पद प्राप्त करने वाले जीवों से या जिन अरिहन्तों ने सिद्ध पद प्राप्त कर लिया है, ऐसे परित्यक्तशरोर जो द्रव्य निक्षेप के अन्तर्गत आते हैं, उनका भी प्रयोजन यहाँ नहीं है, क्योंकि वे भी सम्यक् त के प्रणेता नहीं हो सकते। केवल भावनिक्षेप से जो अरिहन्त हैं, वे ही सम्यक्थु त के प्रणेता होते हैं / भाव अरिहन्तों के लिए सूत्रकार ने सात विशेषण बताए हैं, यथा (1) अरिहन्तेहिं जो राग, द्वेष, विषयकषायादि अठारह दोषों से रहित और चार घनघाति कर्मों का नाश कर चुके हैं, ऐसे उत्तम पुरुष भाव अरिहन्त कहलाते हैं / भाव तीर्थंकर इन विशेषतामों से सम्पन्न होते हैं। (2) भगवन्तेहिं--जिस लोकोत्तर महान् मात्मा में सम्पूर्ण ऐश्वर्य, असीम उत्साह और शक्ति, त्रिलोकव्यापी यश, अद्वितीय श्री, रूप-सौन्दर्य, सोलहों कलाओं से पूर्ण धर्म, विश्व के समस्त उत्तमोत्तम गुण तथा प्रात्मशुद्धि के लिए अथक श्रम हो, उसे ही वस्तुतः भगवान् कहा जा सकता है। शंका हो सकती है कि-'भगवन्त' शब्द सिद्धों के लिये भी प्रयुक्त होता है तो क्या वे भी सम्यक्च त के प्रणेता हो सकते हैं ? इस शंका का समाधान यह है कि सिद्धों में रूप का सर्वथा प्रभाव है, क्योंकि अशरीरी होने से उनमें रूप ही नहीं तो समग्र रूप कसे रह सकता है ? रूप-सौन्दर्य सशरीरी में ही होता है। दुसरे प्रात्म-सिद्धि के लिये अथक एवं पूर्ण प्रयत्न भी सशरीरी ही कर सकता है, अशरीरी नहीं / अतः यही सिद्ध होता है कि सिद्ध भगवान् श्रुत के प्रणेता नहीं हैं और भगवान् शब्द यहाँ अरिहन्तों की विशेषता बताने के लिये ही प्रयुक्त किया गया है। (3) उप्पण्ण-नाणदसणधरेहि-अरिहन्त का तीसरा विशेषण है-उत्पन्न ज्ञानदर्शन के धारक / वैसे ज्ञान-दर्शन तो अध्ययन और अभ्यास से भी हो सकता है पर ऐसे ज्ञान-दर्शन में पूर्णता नहीं होती। यहाँ सम्पूर्ण ज्ञान-दर्शन अभिप्रेत है। शंका हो सकती है कि यह तीसरा विशेषण ही पर्याप्त है, फिर अरिहन्त-भगवान् के लिए पूर्वोक्त दो विशेषण क्यों जोड़े हैं ? इसका उत्तर यही है कि तीसरा विशेषण तो सामान्य केवली में भी पाया जाता है, किन्तु वे सम्यक्च त के प्रणेता नहीं होते / अतः यह विशेषण दोनों पदों की पुष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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