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________________ 152] [नन्दीसूत्र "संज्ञानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञान, तदस्यास्तीति संजी-सम्यग्दृष्टिस्तस्य यच्छ तं, तत्संज्ञिश्रुतं सम्यकश्रुतमिति / " सम्यकदृष्टि जीव दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी कहलाता है। वस्तुतः यथार्थ रूप से हिताहित में प्रवृत्ति-निवृत्ति सम्यकदर्शन के बिना नहीं हो सकती। संज्ञी जीव ही यथायोग्य राग आदि भावशत्रुओं को जीतने में प्रयत्नशील और कालान्तर में समर्थ बनता है / कहा भी है :-- "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणाः / तमसः कुतोऽस्ति शक्तिदिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् / / अर्थात् वह ज्ञान ही नहीं है, जिसके प्रकाशित होने पर भी राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ एवं मोहादि विभाव ठहर सकें। भला सूर्य के उदय होने पर क्या अंधकार ठहर सकता है ? कदापि नहीं। ___ इस अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि असंज्ञी कहलाते हैं। इस प्रकार दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षा से संज्ञी और असंज्ञी श्रत का प्रतिपादन किया गया है / सम्यकश्रुत ७६-से कि तं सम्मसुअं? सम्मसुअंजं इमं अरहंतेहि भगवंतेहि उप्पण्णनाणदंसणधरेहि, तेलुक्क-निरिक्खिन-महिपपूइएहि, तीय-पडुप्पण्ण-मणागयजाणएहि, सव्वहि, सव्वदरिसीहिं, पणीअं दुवालसंगं गणि-पिडगं, तं जहा (1) आयारो (2) सूयगडो (3) ठाणं (4) समवायो (5) विवाहपण्णत्ती (6) नायाधम्मकहानो (7) उवासगदसाम्रो, (8) अंतगडदसानो (1) अणुत्तरोववाइयदसानो (10) पण्हावागरणाई, (11) विवागसुअं (12) दिदिवाश्रो, इच्चेनं दुवालसंगं गणिपिडगं--चोदसपुधिस्स सम्मसुअं, अभिण्णदसपुस्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा / से तं सम्मसुअं। / / सूत्र० 41 / / 76- सम्यक्च त किसे कहते हैं ? सम्यक्च त उत्पन्न ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले, त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा आदरसन्मानपूर्वक देखे गये तथा यथावस्थित उत्कीर्तित, भावयुक्त नमस्कृत, अतीत, वर्तमान और अनागत को जाननेवाले, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अर्हत-तीर्थकर भगवन्तों द्वारा प्रणीत-अर्थ से कथन किया हुआजो यह द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक है, जैसे (1) आचाराङ्ग (2) सूत्रकृताङ्ग (3) स्थानाङ्ग (4) समवायाङ्ग (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति (6) ज्ञाताधर्मकथाङ्ग (7) उपासकदशाङ्ग (8) अन्तकृद्दशाङ्ग (8) अनुत्तरौपपातिकदशाङ्ग (10) प्रश्नव्याकरण (11) विपाक त और (12) दृष्टिवाद, यह सम्यक्च त है / यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक चौदह पूर्वधारी का सम्यक्त ही होता है / सम्पूर्ण दस पूर्वधारी का भी सम्यक्श्रु त ही होता है / उससे कम अर्थात् कुछ कम दस पूर्व और नव आदि पूर्व का ज्ञान होने पर विकल्प है, अर्थात् सम्यक्च त हो और न भी हो / इस प्रकार यह सम्यक्श्रुत का वर्णन पूरा हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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